"एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी | |रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी | ||
− | |संग्रह= | + | |संग्रह=समर्पण / माखनलाल चतुर्वेदी |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | गगन पर सितारे | + | गगन पर दो सितारे: एक तुम हो, |
− | धरा पर दो चरण हैं | + | धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो, |
− | ‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं | + | ‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो, |
− | हिमालय दो शिखर है | + | हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो, |
+ | ::रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा, | ||
+ | ::कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा । | ||
− | + | ::कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये, | |
− | + | ::हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, | |
− | + | ::तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, | |
− | कला के जोड़-सी जग गुत्थियाँ ये, | + | ::कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते । |
− | हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, | + | |
− | तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, | + | |
− | कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
+ | ::तुझे सौगंध है घनश्याम की आ, | ||
+ | ::तुझे सौगंध भारत-धाम की आ, | ||
+ | ::तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ, | ||
+ | ::कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ । | ||
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, | तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, | ||
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, | तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, | ||
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, | तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, | ||
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा | तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा | ||
+ | ::तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर, | ||
+ | ::तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर । | ||
+ | रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा, | ||
+ | कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा, | ||
+ | ::प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो, | ||
+ | ::जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो। | ||
− | + | '''रचनाकाल: खण्डवा-१९४० | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
</poem> | </poem> |
17:56, 12 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।
कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
रचनाकाल: खण्डवा-१९४०