भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ६" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद
 
|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
आशा का फैल रहा है<br />
+
<poem>
यह सूना नीला अंचल<br />
+
आशा का फैल रहा है  
फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे<br />
+
यह सूना नीला अंचल  
उसमें करुणा हो चंचल<br />
+
फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे  
<br />
+
उसमें करुणा हो चंचल  
मधु संसृत्ति की पुलकावलि<br />
+
जागो, अपने यौवन में<br />
+
मधु संसृत्ति की पुलकावलि  
फिर से मरन्द हो<br />
+
जागो, अपने यौवन में  
कोमल कुसुमों के वन में।<br />
+
फिर से मरन्द हो  
<br />
+
कोमल कुसुमों के वन में।  
फिर विश्व माँगता होवे<br />
+
ले नभ की खाली प्याली<br />
+
फिर विश्व माँगता होवे  
तुमसे कुछ मधु की बूँदे<br />
+
ले नभ की खाली प्याली  
लौटा लेने को लाली।<br />
+
तुमसे कुछ मधु की बूँदे  
<br />
+
लौटा लेने को लाली।  
फिर तम प्रकाश झगड़े में<br />
+
नवज्योति विजयिनि होती<br />
+
फिर तम प्रकाश झगड़े में  
हँसता यह विश्व हमारा<br />
+
नवज्योति विजयिनि होती  
बरसाता मंजुल मोती।<br />
+
हँसता यह विश्व हमारा  
<br />
+
बरसाता मंजुल मोती।  
प्राची के अरुण मुकुर में<br />
+
सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा<br />
+
प्राची के अरुण मुकुर में  
उस अलस ऊषा में देखूँ<br />
+
सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा  
अपनी आँखों का तारा।<br />
+
उस अलस ऊषा में देखूँ  
<br />
+
अपनी आँखों का तारा।  
कुछ रेखाएँ हो ऐसी<br />
+
जिनमें आकृति हो उलझी<br />
+
कुछ रेखाएँ हो ऐसी  
तब एक झलक! वह कितनी<br />
+
जिनमें आकृति हो उलझी  
मधुमय रचना हो सुलझी।<br />
+
तब एक झलक! वह कितनी  
<br />
+
मधुमय रचना हो सुलझी।  
जिसमें इतराई फिरती<br />
+
नारी निसर्ग सुन्दरता<br />
+
जिसमें इतराई फिरती  
छलकी पड़ती हो जिसमें<br />
+
नारी निसर्ग सुन्दरता  
शिशु की उर्मिल निर्मलता<br />
+
छलकी पड़ती हो जिसमें  
<br />
+
शिशु की उर्मिल निर्मलता  
आँखों का निधि वह मुख हो<br />
+
अवगुंठन नील गगन-सा<br />
+
आँखों का निधि वह मुख हो  
यह शिथिल हृदय ही मेरा<br />
+
अवगुंठन नील गगन-सा  
खुल जावे स्वयं मगन-सा।<br />
+
यह शिथिल हृदय ही मेरा  
<br />
+
खुल जावे स्वयं मगन-सा।  
मेरी मानसपूजा का<br />
+
पावन प्रतीक अविचल हो<br />
+
मेरी मानसपूजा का  
झरता अनन्त यौवन मधु<br />
+
पावन प्रतीक अविचल हो  
अम्लान स्वर्ण शतदल हो।<br />
+
झरता अनन्त यौवन मधु  
<br />
+
अम्लान स्वर्ण शतदल हो।  
कल्पना अखिल जीवन की<br />
+
किरनों से दृग तारा की<br />
+
कल्पना अखिल जीवन की  
अभिषेक करे प्रतिनिधि बन<br />
+
किरनों से दृग तारा की  
आलोकमयी धारा की।<br />
+
अभिषेक करे प्रतिनिधि बन  
<br />
+
आलोकमयी धारा की।  
वेदना मधुर हो जावे<br />
+
मेरी निर्दय तन्मयता <br />
+
वेदना मधुर हो जावे  
मिल जाये आज हृदय को<br />
+
मेरी निर्दय तन्मयता
पाऊँ मैं भी सहृदयता।<br />
+
मिल जाये आज हृदय को  
<br />
+
पाऊँ मैं भी सहृदयता।  
मेरी अनामिका संगिनि!<br />
+
सुन्दर कठोर कोमलते!<br />
+
मेरी अनामिका संगिनि!  
हम दोनों रहें सखा ही<br />
+
सुन्दर कठोर कोमलते!  
जीवन-पथ चलते-चलते।<br />
+
हम दोनों रहें सखा ही  
<br />
+
जीवन-पथ चलते-चलते।  
ताराओं की वे रातें<br />
+
कितने दिन-कितनी घड़ियाँ<br />
+
ताराओं की वे रातें  
विस्मृति में बीत गईं वें<br />
+
कितने दिन-कितनी घड़ियाँ  
निर्मोह काल की कड़ियाँ<br />
+
विस्मृति में बीत गईं वें  
<br />
+
निर्मोह काल की कड़ियाँ  
उद्वेलित तरल तरंगें<br />
+
मन की न लौट जावेंगी<br />
+
उद्वेलित तरल तरंगें  
हाँ, उस अनन्त कोने को<br />
+
मन की न लौट जावेंगी  
वे सच नहला आवेंगी।<br />
+
हाँ, उस अनन्त कोने को  
<br />
+
वे सच नहला आवेंगी।  
जल भर लाते हैं जिसको<br />
+
छूकर नयनों के कोने<br />
+
जल भर लाते हैं जिसको  
उस शीतलता के प्यासे<br />
+
छूकर नयनों के कोने  
दीनता दया के दोने।<br />
+
उस शीतलता के प्यासे  
<br />
+
दीनता दया के दोने।  
फेनिल उच्छ्वास हृदय के<br />
+
उठते फिर मधुमाया में<br />
+
फेनिल उच्छ्वास हृदय के  
सोते सुकुमार सदा जो<br />
+
उठते फिर मधुमाया में  
पलकों की सुख छाया में।<br />
+
सोते सुकुमार सदा जो  
<br />
+
पलकों की सुख छाया में।  
आँसू वर्षा से सिंचकर<br />
+
दोनों ही कूल हरा हो<br />
+
आँसू वर्षा से सिंचकर  
उस शरद प्रसन्न नदी में<br />
+
दोनों ही कूल हरा हो  
जीवन द्रव अमल भरा हो।<br />
+
उस शरद प्रसन्न नदी में  
<br />
+
जीवन द्रव अमल भरा हो।  
जैसे जीवन का जलनिधि<br />
+
बन अंधकार उर्मिल हो<br />
+
जैसे जीवन का जलनिधि  
आकाश दीप-सा तब वह<br />
+
बन अंधकार उर्मिल हो  
तेरा प्रकाश झिलमिल हो।<br />
+
आकाश दीप-सा तब वह  
<br />
+
तेरा प्रकाश झिलमिल हो।  
हैं पड़ी हुई मुँह ढककर<br />
+
मन की जितनी पीड़ाएँ<br />
+
हैं पड़ी हुई मुँह ढककर  
वे हँसने लगीं सुमन-सी<br />
+
मन की जितनी पीड़ाएँ  
करती कोमल क्रीड़ाएँ।<br />
+
वे हँसने लगीं सुमन-सी  
<br />
+
करती कोमल क्रीड़ाएँ।  
तेरा आलिंगन कोमल<br />
+
मृदु अमरबेलि-सा फैले<br />
+
तेरा आलिंगन कोमल  
धमनी के इस बन्धन में<br />
+
मृदु अमरबेलि-सा फैले  
जीवन ही हो न अकेले।<br />
+
धमनी के इस बन्धन में  
<br />
+
जीवन ही हो न अकेले।  
हे जन्म-जन्म के जीवन<br />
+
साथी संसृति के दुख में<br />
+
हे जन्म-जन्म के जीवन  
पावन प्रभात हो जावे<br />
+
साथी संसृति के दुख में  
जागो आलस के सुख में ।<br />
+
पावन प्रभात हो जावे  
<br />
+
जागो आलस के सुख में ।  
जगती का कलुष अपावन<br />
+
तेरी विदग्धता पावे<br />
+
जगती का कलुष अपावन  
फिर निखर उठे निर्मलता<br />
+
तेरी विदग्धता पावे  
यह पाप पुण्य हो जावे।<br />
+
फिर निखर उठे निर्मलता  
<br />
+
यह पाप पुण्य हो जावे।  
सपनों की सुख छाया में<br />
+
जब तन्द्रालस संसृति है<br />
+
सपनों की सुख छाया में  
तुम कौन सजग हो आई<br />
+
जब तन्द्रालस संसृति है  
मेरे मन में विस्मृति है!<br />
+
तुम कौन सजग हो आई  
<br />
+
मेरे मन में विस्मृति है!  
तुम! अरे, वही हाँ तुम हो<br />
+
मेरी चिर जीवनसंगिनि<br />
+
तुम! अरे, वही हाँ तुम हो  
दुख वाले दग्ध हृदय की<br />
+
मेरी चिर जीवनसंगिनि  
वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!<br />
+
दुख वाले दग्ध हृदय की  
<br />
+
वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!  
जब तुम्हें भूल जाता हूँ<br />
+
कुड्मल किसलय के छल में<br />
+
जब तुम्हें भूल जाता हूँ  
तब कूक हूक-सू बन तुम<br />
+
कुड्मल किसलय के छल में  
आ जाती रंगस्थल में।<br />
+
तब कूक हूक-सू बन तुम  
<br />
+
आ जाती रंगस्थल में।  
बतला दो अरे न हिचको<br />
+
क्या देखा शून्य गगन में<br />
+
बतला दो अरे न हिचको  
कितना पथ हो चल आई<br />
+
क्या देखा शून्य गगन में  
रजनी के मृदु निर्जन में!<br />
+
कितना पथ हो चल आई  
<br />
+
रजनी के मृदु निर्जन में!  
सुख तृप्त हृदय कोने को<br />
+
ढँकती तमश्यामल छाया<br />
+
सुख तृप्त हृदय कोने को  
मधु स्वप्निल ताराओं की<br />
+
ढँकती तमश्यामल छाया  
जब चलती अभिनय माया।<br />
+
मधु स्वप्निल ताराओं की  
<br />
+
जब चलती अभिनय माया।  
देखा तुमने तब रुककर<br />
+
मानस  कुमुदों का रोना<br />
+
देखा तुमने तब रुककर  
शशि किरणों का हँस-हँसकर<br />
+
मानस  कुमुदों का रोना  
मोती मकरन्द पिरोना।<br />
+
शशि किरणों का हँस-हँसकर  
<br />
+
मोती मकरन्द पिरोना।  
देखा बौने जलनिधि का<br />
+
शशि छूने को ललचाना<br />
+
देखा बौने जलनिधि का  
वह हाहाकार मचाना<br />
+
शशि छूने को ललचाना  
फिर उठ-उठकर गिर जाना।<br />
+
वह हाहाकार मचाना  
<br />
+
फिर उठ-उठकर गिर जाना।  
मुँह सिये, झेलती अपनी<br />
+
अभिशाप ताप ज्वालाएँ<br />
+
मुँह सिये, झेलती अपनी  
देखी अतीत के युग की<br />
+
अभिशाप ताप ज्वालाएँ  
चिर मौन शैल मालाएँ।<br />
+
देखी अतीत के युग की  
<br />
+
चिर मौन शैल मालाएँ।  
जिनपर न वनस्पति कोई<br />
+
श्यामल उगने पाती है<br />
+
जिनपर न वनस्पति कोई  
जो जनपद परस तिरस्कृत<br />
+
श्यामल उगने पाती है  
अभिशप्त कही जाती है।<br />
+
जो जनपद परस तिरस्कृत  
<br />
+
अभिशप्त कही जाती है।  
कलियों को उन्मुख देखा<br />
+
सुनते वह कपट कहानी<br />
+
कलियों को उन्मुख देखा  
फिर देखा उड़ जाते भी<br />
+
सुनते वह कपट कहानी  
मधुकर को कर मनमानी।<br />
+
फिर देखा उड़ जाते भी  
<br />
+
मधुकर को कर मनमानी।  
फिर उन निराश नयनों की<br />
+
जिनके आँसू सूखे हैं<br />
+
फिर उन निराश नयनों की  
उस प्रलय दशा को देखा <br />
+
जिनके आँसू सूखे हैं  
जो चिर वंचित भूखे हैं।<br />
+
उस प्रलय दशा को देखा
<br />
+
जो चिर वंचित भूखे हैं।  
सूखी सरिता की शय्या<br />
+
वसुधा की करुण कहानी<br />
+
सूखी सरिता की शय्या  
कूलों में लीन न देखी<br />
+
वसुधा की करुण कहानी  
क्या तुमने मेरी रानी?<br />
+
कूलों में लीन न देखी  
<br />
+
क्या तुमने मेरी रानी?  
सूनी कुटिया कोने में<br />
+
रजनी भर जलते जाना<br />
+
सूनी कुटिया कोने में  
लघु स्नेह भरे दीपक का<br />
+
रजनी भर जलते जाना  
देखा है फिर बुझ जाना।<br />
+
लघु स्नेह भरे दीपक का  
<br />
+
देखा है फिर बुझ जाना।  
सबका निचोड़ लेकर तुम<br />
+
सुख से सूखे जीवन में<br />
+
सबका निचोड़ लेकर तुम  
बरसों प्रभात हिमकन-सा<br />
+
सुख से सूखे जीवन में  
आँसू इस विश्व-सदन में ।<br />
+
बरसों प्रभात हिमकन-सा  
<br />
+
आँसू इस विश्व-सदन में ।  
 +
</poem>

10:57, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

आशा का फैल रहा है
यह सूना नीला अंचल
फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे
उसमें करुणा हो चंचल
 
मधु संसृत्ति की पुलकावलि
जागो, अपने यौवन में
फिर से मरन्द हो
कोमल कुसुमों के वन में।
 
फिर विश्व माँगता होवे
ले नभ की खाली प्याली
तुमसे कुछ मधु की बूँदे
लौटा लेने को लाली।
 
फिर तम प्रकाश झगड़े में
नवज्योति विजयिनि होती
हँसता यह विश्व हमारा
बरसाता मंजुल मोती।
 
प्राची के अरुण मुकुर में
सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा
उस अलस ऊषा में देखूँ
अपनी आँखों का तारा।
 
कुछ रेखाएँ हो ऐसी
जिनमें आकृति हो उलझी
तब एक झलक! वह कितनी
मधुमय रचना हो सुलझी।
 
जिसमें इतराई फिरती
नारी निसर्ग सुन्दरता
छलकी पड़ती हो जिसमें
शिशु की उर्मिल निर्मलता
 
आँखों का निधि वह मुख हो
अवगुंठन नील गगन-सा
यह शिथिल हृदय ही मेरा
खुल जावे स्वयं मगन-सा।
 
मेरी मानसपूजा का
पावन प्रतीक अविचल हो
झरता अनन्त यौवन मधु
अम्लान स्वर्ण शतदल हो।
 
कल्पना अखिल जीवन की
किरनों से दृग तारा की
अभिषेक करे प्रतिनिधि बन
आलोकमयी धारा की।
 
वेदना मधुर हो जावे
मेरी निर्दय तन्मयता
मिल जाये आज हृदय को
पाऊँ मैं भी सहृदयता।
 
मेरी अनामिका संगिनि!
सुन्दर कठोर कोमलते!
हम दोनों रहें सखा ही
जीवन-पथ चलते-चलते।
 
ताराओं की वे रातें
कितने दिन-कितनी घड़ियाँ
विस्मृति में बीत गईं वें
निर्मोह काल की कड़ियाँ
 
उद्वेलित तरल तरंगें
मन की न लौट जावेंगी
हाँ, उस अनन्त कोने को
वे सच नहला आवेंगी।
 
जल भर लाते हैं जिसको
छूकर नयनों के कोने
उस शीतलता के प्यासे
दीनता दया के दोने।
 
फेनिल उच्छ्वास हृदय के
उठते फिर मधुमाया में
सोते सुकुमार सदा जो
पलकों की सुख छाया में।
 
आँसू वर्षा से सिंचकर
दोनों ही कूल हरा हो
उस शरद प्रसन्न नदी में
जीवन द्रव अमल भरा हो।
 
जैसे जीवन का जलनिधि
बन अंधकार उर्मिल हो
आकाश दीप-सा तब वह
तेरा प्रकाश झिलमिल हो।
 
हैं पड़ी हुई मुँह ढककर
मन की जितनी पीड़ाएँ
वे हँसने लगीं सुमन-सी
करती कोमल क्रीड़ाएँ।
 
तेरा आलिंगन कोमल
मृदु अमरबेलि-सा फैले
धमनी के इस बन्धन में
जीवन ही हो न अकेले।
 
हे जन्म-जन्म के जीवन
साथी संसृति के दुख में
पावन प्रभात हो जावे
जागो आलस के सुख में ।
 
जगती का कलुष अपावन
तेरी विदग्धता पावे
फिर निखर उठे निर्मलता
यह पाप पुण्य हो जावे।
 
सपनों की सुख छाया में
जब तन्द्रालस संसृति है
तुम कौन सजग हो आई
मेरे मन में विस्मृति है!
 
तुम! अरे, वही हाँ तुम हो
मेरी चिर जीवनसंगिनि
दुख वाले दग्ध हृदय की
वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!
 
जब तुम्हें भूल जाता हूँ
कुड्मल किसलय के छल में
तब कूक हूक-सू बन तुम
आ जाती रंगस्थल में।
 
बतला दो अरे न हिचको
क्या देखा शून्य गगन में
कितना पथ हो चल आई
रजनी के मृदु निर्जन में!
 
सुख तृप्त हृदय कोने को
ढँकती तमश्यामल छाया
मधु स्वप्निल ताराओं की
जब चलती अभिनय माया।
 
देखा तुमने तब रुककर
मानस कुमुदों का रोना
शशि किरणों का हँस-हँसकर
मोती मकरन्द पिरोना।
 
देखा बौने जलनिधि का
शशि छूने को ललचाना
वह हाहाकार मचाना
फिर उठ-उठकर गिर जाना।
 
मुँह सिये, झेलती अपनी
अभिशाप ताप ज्वालाएँ
देखी अतीत के युग की
चिर मौन शैल मालाएँ।
 
जिनपर न वनस्पति कोई
श्यामल उगने पाती है
जो जनपद परस तिरस्कृत
अभिशप्त कही जाती है।
 
कलियों को उन्मुख देखा
सुनते वह कपट कहानी
फिर देखा उड़ जाते भी
मधुकर को कर मनमानी।
 
फिर उन निराश नयनों की
जिनके आँसू सूखे हैं
उस प्रलय दशा को देखा
जो चिर वंचित भूखे हैं।
 
सूखी सरिता की शय्या
वसुधा की करुण कहानी
कूलों में लीन न देखी
क्या तुमने मेरी रानी?
 
सूनी कुटिया कोने में
रजनी भर जलते जाना
लघु स्नेह भरे दीपक का
देखा है फिर बुझ जाना।
 
सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसों प्रभात हिमकन-सा
आँसू इस विश्व-सदन में ।