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{{KKRachna
|रचनाकार=मोहन राणा
|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं नदी / मोहन राणा
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{{KKCatKavita}}<poem>
लताओं से लिपटे पुराने पेड़
गहरी छायाओं में सोया है जंगल
मेरी बढ़ती हुई धड़कन में
सहमा है रक्त
उत्तेजना में देखता हूँ
छुपे हुए चेहरों को
उतरते हुए मुखौटों को
छनती हुई रोशनी के आर पार
जो पहुँच जाती है मेरी जड़ों में भी,
क्यों चला आया मैं यहाँ
अकेले ही
जो नहीं था उसे
ले आया यहाँ
'''रचनाकाल: 18.8.2002 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं </ मोहन राणा}} होगा एक और शब्द नीली रंगते बदलतीआकाश और लहरों कीबादल गुनगुनाता कुछसपना सा खुली आँखों काकैसा होगा यह दिनकैसा होगा यह वस्त्र क्षणों काऊन के धागों का गोलासमय को बुनताउनींदे पत्थरों को थपकाता होगा एक और शब्दकहने को यह किसी और दिन 28.5.2001 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} किसी आशा में गूंगे शब्दों से भरा मुँहशैवालों से भरी किताबेंआज का दिन भी नहीं कहताकुछ नया,खोल देता हूँ खिड़की दरवाजेकिसी आशा में 5.9.2001 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} स्कूल पहले मुझे किताब की जिल्द मिलीफिर एक कॉपीबस्ते में और कुछ नहीं बचा इतने बरस बादघंटी सुनते ही जाग पड़ामैदान में कोई नहीं था दसवीं बी में भी कोई नहींक्या आज स्कूल की छुट्टी है सोचा मैंनेहवाई जहाज मध्य यूरोप में कहीं था और मैंकई बरस पहले अपने स्कूल धरती ने ली सांसहँसा समुंदरआकाश खोज में है अनंतता की बहुत पहले मैंने उकेरा अपना नाम मेज परसमय की त्वचा के नीचे धूमिलकोई तारीख कोई दोपहर उड़ा लाती हवा के साथकिसी बात की जड़मैं वह दीवार हूँजिसकी दरार में उगा है वह पीपल 5.9.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} कुछ पाने की चिंता अपने ही विचारों में उलझतायहाँ वहाँक्या तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ कभी,जो अब याद नहीं बात किसी अच्छे मूड से हुई थीकि लगा कोई पंक्ति पूरी होगीपर्ची के पीछेउस पल सांस ताजी लगीऔर दुनिया नयी,यह सोचाऔर साथ हो गई कुछ पाने की चिंता मैं धकेलता रहा वह और पास आती गई,अच्छा विचार नहीं बचा सकतामुझे अपने आप से भी,उसे खोना चाहता हूँनहीं जीना चाहताकिसी और का अधूरा सपना 30.8.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} अस्मिता क्या मैं हूँ वह नहीं जो याद नहीं अब,जो है वह किसी और की स्मृति नहीं क्याजिनसे जानता पहचानता अपने आपकोमनुष्य ही नहीं पेड़- पंछीहवा आकाशमौन धरतीघर खिड़कीएक कविता का निश्वास! पर ये नहीं किसी और की स्मृति क्या?जो याद है बसभूलकर कुछ 13.8.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} कौन बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुएमैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को उठा कर सीधा करतागिरी हुई कोकतरता पोंछताझाड़ता बुहारता,जीते हुए बदलते जीवन को देखताछूटता गिरता टूटता गर्द होता,और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य कोकहते सामान्यसब कुछ नया साफ सुथराजैसे मैं देखता उसे इस पलऔर बदलता तभीछूटता मेरे हाथों सेजैसे वह कभी ना था वहाँ,कौन! रुक कर पूछता मैंअब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें 11.9.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} गिरगिट हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बारदेखते एक दूसरे कोजानते हुए भी कि पहचान पुरानी है,करते इशारा एक दिशा कोवह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है! वह गर्मियों का भी नहीं लगता,आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएँपर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटाअनुपस्थित है चिड़ियाँकातर आवाजें वहाँ... कैसे मैं जाऊँ वहाँ कविताएँ सुनने, हम रुकते हैं पलक झपकातेझेंपतेजैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलतेकोई जगहबदलते कोई रंगकोई चेहरा 27.4.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} अपवाद तुम अपवाद हो इसलिएअपने आप से करता मेरा विवाद हो,सोचता मैं कोई शब्द जो फुसलादेमेरे साथ चलती छाया कोकुछ देर कि मैं छिप जाऊँ किसी मोड़ पे,देखूँ होकर अदृश्यअपने ही जीवन के विवाद कोरिक्त स्थानों के संवाद में. 26.11.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} वसंत सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थयही सोचते मैं बदलता करवट,परती रोशनी में सुबह कीलापता है वसंत इस बरस, हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार,पर उसमें ना कोई अता है ना पताना ही कोई पहचानमालूम नहीं मैं क्या कहूँगायदि वह मिला कहींक्या मैं पूछूँगा उसकी अनुपस्थिति का कारणकि इतनी छोटी सी मुलाकातक्या पर्याप्तफिर से पहचानने के लिएतो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भीकि याद आए कुछजो भूल ही गया,अनुपस्थित स्पर्श 21.3.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} तुम्हारा कभी कोई नाम ना था वे व्यस्त हैंवे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैंमुझे शिकायत नहीं वे व्यस्तमेरे हर सवाल पर उनका हालकि वे व्यस्त हैं,रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलतापर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्रमैं व्यस्त हूँमैं व्यस्त हूँसदा समय के साथसदा समय के साथ पर कान वाले लोग बहरे हैं,और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को. और समय वही दोपहर के 11:22कहीं शाम हो चुकी होगीकहीं अभी होती होगी सुबह नयीकहीं आने वाली होगी रात पुरानी क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभीपूछता उससेजैसे कुछ याद आ जाए उसे,लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती,कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी कोजो अब याद नहींकि भूलना कठिन है तुम्हें 16.11.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} अजनबी बनता पहचान देखें तो कौन रहता है इस घर मेंकिसी आश्चर्य की आशाधीरज से हाथ बाँधे खड़ामैं देता दस्तक दरवाज़ेपरसोचता- कितना पुराना है यह दरवाज़ासुनता झाडि़यों में उलझती हवा कोट्रैफिक के अनुनाद कोसुनता अपनी सांस को बढ़ती एक धड़कन कोपायदान पर जूते पौंछतादरवाज़ेपे लगाता कानकि लगा कोई निकट आया भीतर दरवाज़ेकेबंद करता आँखेंदेखता किसी हाथ को रुकते एक पल सिटकनी को छूतेनिश्वास जैसे अनंत सिमटता वहीं पर, भीतर भीबाहर भीमैं ही जैसे घर का दरवाज़ाअजनबी बनतापहचान बनाता 28.2.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} सच का हाथ ये आवाजेंये खिंचे हुएउग्र चेहरेचिल्लाते मनुष्यता खो चुकीअपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार मेंबस टटोलती एक क्रूर धरातल को,कि एक हाथ बढ़ा कहीं सेजैसे मेरी ओरआतंक से भीगे पहर मेंकविता का स्पर्श,मैं जागा दुस्वप्न सेआँखें मलतापर मिटता नहीं कुछ जो देखा 7.2.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} सर्दियाँ जमे हुए पाले मेंगलते पतझर को फिर चस्पा दूँगा पेड़ों परहवा की सर्द सीत्कार कम हो जाएगी,जैसे अपने को आश्वस्त करतापास ही है वसंतइस प्रतीक्षा मेंपिछले कई दिनों से कुछ जमा होता रहाले चुका कोई आकारकोई कारणकोई प्रश्नमेरे कंधे परमेरे हाथों मेंजेब मेंकहीं मेरे भीतरकुछ जिसे छू सकता हूँयह वज़नअब हर उसांसमें धकेलता मुझे नीचेकिसी समतल धरातल की ओर, 4.2.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} ढलती एक शाम कितने आयाम कि चैन नहीं जिसमेंली यह सांस करने यह सवालकि नहीं करूँगा फिर वही सवाल,मैं चिड़िया हूँ या पतंगया दोनों ही हूँ एक साथ उस आयाम मेंढलती एक शाम 29.1.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} कविता कविता जीवन का क्लोरोफिलऔर जीवन सृष्टि का पत्ताउलटता पृष्ठ यह सोचकरकौन सोया है इस वृक्ष की छाया मेंकिसका यह सपनाजो देखता मैंउसे अपना समझ कर. 22.1.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} पावती लौटती हुई रचनाएँकिसे होता है खेदसंपादक कोकवि को ?शहडोल के शर्मा जी कोपरीक्षाओं के कुंजीकारों कोनई सड़क की भीड़ कोकिसी अधूरेबड़बड़ाए वाक्य कोकिसे होता है खेद इस चुप्पी में मुझे कोई खेद नहींउन्हें भी कोई खेद नहींफिर यह पावती किसके लिए 9.2.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} झपकी नंगे पेड़ों परउधड़ी हुई दीवारों परबेघर मकानों परखोए हुए रास्तों परभूखे मैदानों पर बिसरी हुई स्मृतियों परबेचैन खिड़कियों परछुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,हल्का सा स्पर्शढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,उठता है मंद होते संसार का स्वरआँख खुलते ही 3.2.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} भंवर अंगूर की बेलों में लिपटसो जाती धूप बीच दोपहरगहरी छायाओं मेंसोए हैं राक्षससोए हैं योद्धासोए हैं नायकसोया है पुरासमय खुर्राताअपने आपको दुहराते अभिशप्त वर्तमान में 4.12.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} चश्मा कभी कभी लगाता हूँपर खुदको नहींऔरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा,कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों मेंउनकी चुप्पी में,कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भीआइने में अपने को देखते,मुस्कराहट के छोर पर. 2.12.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} सड़क पर चीखती हुई कुछ बोलती चिड़ियाँ लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोतायह एक चलता हुआ घरभागती हुई सड़क परयह एक बोलती खामोश दोपहर 14.7.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} यदि वे मर जाएँगेतो विलुप्त हो जाएँगी लहरेंपत्थर हो जाएगी नदीजीवाश्म हो जाएँगी मछलियाँ पानी मेंनाव खो देगी अपना किनारा,यदि लहरों के राजहँस मर जाएँ.हम रुके रह जाएँगे अतीत में किसी वर्तमान को खोजते 8.4.2006 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} कोई आकर पूछे रुके और पहचान लेअरे तुमजैसे बस पलक झपकीकि रुक गया समय भीकुछ अधूरा दिख गयाऔर याद करतेकुछ अधूरा छूट गया फिर सेचलते चलते 1.8.2005 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} किताब रुकते अटकते कभीथक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों मेंनिराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में पूरी हो गई एक किताबकिसी अंत से शुरू होतीकिसी आरंभ पर रुक जातीपूरी हो गई एक किताब आकाश गंगा में एकबूंद पृथ्वीभटकते अंधकार में 17.9.2004 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} सवाल क्या यह पता सही है? मैं कुछ सवाल करतासच और भय की अटकलें लगातेएक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनताविस्मृति के झोले में और वह बेमन देता जवाबअपने काज में लगाजैसे उन सवालों का कोई मतलब ना होजैसे अतीत अब वर्तमान ना होबीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगामैं सच कोवह समझने वाली बाती नहींकि समझा सके कोई सच,आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारेचलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना होकि कहीं फिर से ना पूछना पड़ेकिधर जाता है यह रास्ता, समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकरयही जान पाता कि सबकुछबस यह पलहमेशा अनुपस्थित 12.7. {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} भूल-भुलैया अधजागा ही सोया गया मैंफिर भी बंद न हुआ सोचनाझरती रही कतरनें मन मेंतुम्हें याद करतेकभी हँस देताकभी सोचता कोई और संभावना उस रास्ते पर अब चौड़ी सड़क हैचहल पहल पर वह जगह नहींजो वहाँ थीबस स्मृति है !हर गली से हम पहुँचते फिर उसी सड़क के कोने परअधजागा मैं बढ़ाता हाथछूटते सपने की ओर,कोई आता निकटदूर होता जाता भूल-भुलैया मेंफिर वहीं अपने संशय के साथ 24.11.2003 {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहन राणा|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदीं / मोहन राणा}} अंत में बंद कर देता हूँअपने को सुननाकानों से हाथों को हटाकरबंद कर देता हूँकुछ कहनाशुरू करता हूँजाननाबिना किताबों केबिना उपदेशों केबिना दिशा सूचक केबिना मार्गदर्शक केबिना नक्शे केबिना ईश्वर केबस जानना 25.10.2004poem>