भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आधुनिक नारी के नाम / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमा द्विवेदी}}
+
{{KKGlobal}}  
 
+
{{KKRachna  
 
+
|रचनाकार=रमा द्विवेदी
  नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,<br>
+
}}
  तू दुर्गा है ,तू काली है,<br>
+
{{KKCatKavita}}
  तुझमें असीम शक्ति भंडार,<br>
+
<poem>
  फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,<br>
+
नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,  
  याद कर अपने अतीत को,<br>
+
तू दुर्गा है ,तू काली है,  
  तोड.कर रूढियों-<br>
+
तुझमें असीम शक्ति भंडार,  
  बंधनों एवं परम्पराओं को.<br>
+
फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,  
  आंख खोल कर देख,<br>
+
याद कर अपने अतीत को,  
  दुनिया का नक्शा ,<br>
+
तोड कर रूढियों-  
  कुछ सीख ले,<br>
+
बंधनों एवं परम्पराओं को.  
  वर्ना पछ्तायेगी,<br>
+
आंख खोल कर देख,  
  तू सदियों पीछे,<br>
+
दुनिया का नक्शा ,  
  पहुंचा दी जायेगी ।<br>
+
कुछ सीख ले,  
  तू क्यों पुरूष के हाथ की,<br>
+
वर्ना पछ्तायेगी,  
  कठपुतली बन शोषित होती है?<br>
+
तू सदियों पीछे,
  तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन<br>
+
पहुंचा दी जायेगी ।  
  तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?<br>
+
तू क्यों पुरूष के हाथ की,  
  यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,<br>
+
कठपुतली बन शोषित होती है?  
  सब तूने ही है दिया उसे,<br>
+
तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन  
  वही तुझे आज शोषित कर,<br>
+
तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?  
  अन्याय और अत्याचार कर,<br>
+
यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,  
  तुझे विवश करता है,<br>
+
सब तूने ही है दिया उसे,  
  अस्मिता बेचने के लिए,<br>
+
वही तुझे आज शोषित कर,  
  और तू निर्बल बन,<br>
+
अन्याय और अत्याचार कर,  
  घुटने टेक देती है ।<br>
+
तुझे विवश करता है,  
  क्यों???<br>
+
अस्मिता बेचने के लिए,  
    क्या तू इतनी निर्बल है?<br>
+
और तू निर्बल बन,  
  अगर ऎसा है-<br>
+
घुटने टेक देती है ।  
  तो घर में ही बैठो,<br>
+
क्यों???  
  बाहर निकलने की-<br>
+
क्या तू इतनी निर्बल है?  
  जरूरत नहीं,<br>
+
अगर ऎसा है-  
  पर यह मत भूलो कि-<br>
+
तो घर में ही बैठो,  
  घर में भी तेरा शोषण होगा ही<br>
+
बाहर निकलने की-  
  फर्क होगा सिर्फ़ ,<br>
+
जरूरत नहीं,  
  हथियारों के इस्तेमाल में ।<br>
+
पर यह मत भूलो कि-  
  तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-<br>
+
घर में भी तेरा शोषण होगा ही  
  किसके लिए?<br>
+
फर्क होगा सिर्फ़ ,  
  अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,<br>
+
हथियारों के इस्तेमाल में ।  
  रक्षा के लिए,<br>
+
तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-  
  या<br>
+
किसके लिए?  
  दूसरो के लिए?<br>
+
अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,  
  सोच ले तू कहां है?<br>
+
रक्षा के लिए,  
  सब कुछ देकर,<br>
+
या  
  तेरे पास अपना,<br>
+
दूसरो के लिए?  
  क्या बचा है? <br>
+
सोच ले तू कहां है?  
  कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।<br>
+
सब कुछ देकर,  
  भौतिक सुखों को त्याग कर,<br>
+
तेरे पास अपना,  
  नर-पाश्विकता से जूझ कर,<br>
+
क्या बचा है?
  स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,<br>
+
कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।  
  अपनी योग्यता से आगे बढ. ।<br>
+
भौतिक सुखों को त्याग कर,  
  मत सह पुरूष के अत्याचार,<br>
+
नर-पाश्विकता से जूझ कर,  
  द्ढ. संकल्प लेकर,<br>
+
स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,  
  बढ. जा जीवन पथ पर,<br>
+
अपनी योग्यता से आगे बढ. ।  
  निराश न हो,<br>
+
मत सह पुरूष के अत्याचार,  
  घबरा कर कर्म पथ से,<br>
+
द्ढ संकल्प लेकर,  
  विचलित न हो,<br>
+
बढ जा जीवन पथ पर,  
  तू अडिग रह, अटल रह,<br>
+
निराश न हो,  
  अपने लक्ष्य पर,<br>
+
घबरा कर कर्म पथ से,  
  तेरी विजय निश्चित है ।<br>
+
विचलित न हो,  
  तू अपनी "पहचान" को,<br>
+
तू अडिग रह, अटल रह,  
  विवशता का रूप न दे,<br>
+
अपने लक्ष्य पर,  
  वर्ना नर भेडि़ए तुझे,<br>
+
तेरी विजय निश्चित है ।  
  समूचा ही निगल जाएंगे ।<br>
+
तू अपनी "पहचान" को,  
  खोकर अपनी अस्मिता को,<br>
+
विवशता का रूप न दे,  
  कुछ पा लेना ,<br>
+
वर्ना नर भेडि़ए तुझे,  
  जीवन की सार्थकता नहीं,<br>
+
समूचा ही निगल जाएंगे ।  
  आत्म ग्लानि तुझे,<br>
+
खोकर अपनी अस्मिता को,  
  नर्काग्नि में जलायेगी ।<br>
+
कुछ पा लेना ,  
  इसलिए तू सजग हो जा,<br>
+
जीवन की सार्थकता नहीं,  
  तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,<br>
+
आत्म ग्लानि तुझे,  
  विजय लक्ष्मी बन,<br>
+
नर्काग्नि में जलायेगी ।  
  कर्म में प्रवत्त हो,<br>
+
इसलिए तू सजग हो जा,  
  अपने लक्ष्य तक पहुंच <br>
+
तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,  
  पुरूष के पशु को पराजित कर,<br>
+
विजय लक्ष्मी बन,  
  स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,<br>
+
कर्म में प्रवत्त हो,  
  इसी में तेरे जीवन की,<br>
+
अपने लक्ष्य तक पहुंच
  सार्थकता है,<br>
+
पुरूष के पशु को पराजित कर,  
  और<br>
+
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,  
  जीवन की महान उपलब्धि भी<br>
+
इसी में तेरे जीवन की,  
 +
सार्थकता है,  
 +
और  
 +
जीवन की महान उपलब्धि भी  
 +
</poem>

20:50, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,
तू दुर्गा है ,तू काली है,
तुझमें असीम शक्ति भंडार,
फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,
याद कर अपने अतीत को,
तोड कर रूढियों-
बंधनों एवं परम्पराओं को.
आंख खोल कर देख,
दुनिया का नक्शा ,
कुछ सीख ले,
वर्ना पछ्तायेगी,
तू सदियों पीछे,
पहुंचा दी जायेगी ।
तू क्यों पुरूष के हाथ की,
कठपुतली बन शोषित होती है?
तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन
तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?
यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,
सब तूने ही है दिया उसे,
वही तुझे आज शोषित कर,
अन्याय और अत्याचार कर,
तुझे विवश करता है,
अस्मिता बेचने के लिए,
और तू निर्बल बन,
घुटने टेक देती है ।
क्यों???
क्या तू इतनी निर्बल है?
अगर ऎसा है-
तो घर में ही बैठो,
बाहर निकलने की-
जरूरत नहीं,
पर यह मत भूलो कि-
घर में भी तेरा शोषण होगा ही
फर्क होगा सिर्फ़ ,
हथियारों के इस्तेमाल में ।
तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-
किसके लिए?
अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,
रक्षा के लिए,
या
दूसरो के लिए?
सोच ले तू कहां है?
सब कुछ देकर,
तेरे पास अपना,
क्या बचा है?
कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।
भौतिक सुखों को त्याग कर,
नर-पाश्विकता से जूझ कर,
स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,
अपनी योग्यता से आगे बढ. ।
मत सह पुरूष के अत्याचार,
द्ढ संकल्प लेकर,
बढ जा जीवन पथ पर,
निराश न हो,
घबरा कर कर्म पथ से,
विचलित न हो,
तू अडिग रह, अटल रह,
अपने लक्ष्य पर,
तेरी विजय निश्चित है ।
तू अपनी "पहचान" को,
विवशता का रूप न दे,
वर्ना नर भेडि़ए तुझे,
समूचा ही निगल जाएंगे ।
खोकर अपनी अस्मिता को,
कुछ पा लेना ,
जीवन की सार्थकता नहीं,
आत्म ग्लानि तुझे,
नर्काग्नि में जलायेगी ।
इसलिए तू सजग हो जा,
तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,
विजय लक्ष्मी बन,
कर्म में प्रवत्त हो,
अपने लक्ष्य तक पहुंच
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
और
जीवन की महान उपलब्धि भी