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− | + | तुझमें असीम शक्ति भंडार, | |
− | + | फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय, | |
− | + | याद कर अपने अतीत को, | |
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− | + | बंधनों एवं परम्पराओं को. | |
− | + | आंख खोल कर देख, | |
− | + | दुनिया का नक्शा , | |
− | + | कुछ सीख ले, | |
− | + | वर्ना पछ्तायेगी, | |
− | + | तू सदियों पीछे, | |
− | + | पहुंचा दी जायेगी । | |
− | + | तू क्यों पुरूष के हाथ की, | |
− | + | कठपुतली बन शोषित होती है? | |
− | + | तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन | |
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− | + | यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं, | |
− | + | सब तूने ही है दिया उसे, | |
− | + | वही तुझे आज शोषित कर, | |
− | + | अन्याय और अत्याचार कर, | |
− | + | तुझे विवश करता है, | |
− | + | अस्मिता बेचने के लिए, | |
− | + | और तू निर्बल बन, | |
− | + | घुटने टेक देती है । | |
− | + | क्यों??? | |
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− | + | अगर ऎसा है- | |
− | + | तो घर में ही बैठो, | |
− | + | बाहर निकलने की- | |
− | + | जरूरत नहीं, | |
− | + | पर यह मत भूलो कि- | |
− | + | घर में भी तेरा शोषण होगा ही | |
− | + | फर्क होगा सिर्फ़ , | |
− | + | हथियारों के इस्तेमाल में । | |
− | + | तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं- | |
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− | + | सब कुछ देकर, | |
− | + | तेरे पास अपना, | |
− | + | क्या बचा है? | |
− | + | कुछ पाने के लिए संघर्ष कर । | |
− | + | भौतिक सुखों को त्याग कर, | |
− | + | नर-पाश्विकता से जूझ कर, | |
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− | + | अपनी योग्यता से आगे बढ. । | |
− | + | मत सह पुरूष के अत्याचार, | |
− | + | द्ढ संकल्प लेकर, | |
− | + | बढ जा जीवन पथ पर, | |
− | + | निराश न हो, | |
− | + | घबरा कर कर्म पथ से, | |
− | + | विचलित न हो, | |
− | + | तू अडिग रह, अटल रह, | |
− | + | अपने लक्ष्य पर, | |
− | + | तेरी विजय निश्चित है । | |
− | + | तू अपनी "पहचान" को, | |
− | + | विवशता का रूप न दे, | |
− | + | वर्ना नर भेडि़ए तुझे, | |
− | + | समूचा ही निगल जाएंगे । | |
− | + | खोकर अपनी अस्मिता को, | |
− | + | कुछ पा लेना , | |
− | + | जीवन की सार्थकता नहीं, | |
− | + | आत्म ग्लानि तुझे, | |
− | + | नर्काग्नि में जलायेगी । | |
− | + | इसलिए तू सजग हो जा, | |
− | + | तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी, | |
− | + | विजय लक्ष्मी बन, | |
− | + | कर्म में प्रवत्त हो, | |
− | + | अपने लक्ष्य तक पहुंच | |
− | + | पुरूष के पशु को पराजित कर, | |
− | + | स्वयं की महत्ता उदघाटित कर, | |
− | + | इसी में तेरे जीवन की, | |
+ | सार्थकता है, | ||
+ | और | ||
+ | जीवन की महान उपलब्धि भी | ||
+ | </poem> |
20:50, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,
तू दुर्गा है ,तू काली है,
तुझमें असीम शक्ति भंडार,
फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,
याद कर अपने अतीत को,
तोड कर रूढियों-
बंधनों एवं परम्पराओं को.
आंख खोल कर देख,
दुनिया का नक्शा ,
कुछ सीख ले,
वर्ना पछ्तायेगी,
तू सदियों पीछे,
पहुंचा दी जायेगी ।
तू क्यों पुरूष के हाथ की,
कठपुतली बन शोषित होती है?
तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन
तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?
यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,
सब तूने ही है दिया उसे,
वही तुझे आज शोषित कर,
अन्याय और अत्याचार कर,
तुझे विवश करता है,
अस्मिता बेचने के लिए,
और तू निर्बल बन,
घुटने टेक देती है ।
क्यों???
क्या तू इतनी निर्बल है?
अगर ऎसा है-
तो घर में ही बैठो,
बाहर निकलने की-
जरूरत नहीं,
पर यह मत भूलो कि-
घर में भी तेरा शोषण होगा ही
फर्क होगा सिर्फ़ ,
हथियारों के इस्तेमाल में ।
तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-
किसके लिए?
अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,
रक्षा के लिए,
या
दूसरो के लिए?
सोच ले तू कहां है?
सब कुछ देकर,
तेरे पास अपना,
क्या बचा है?
कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।
भौतिक सुखों को त्याग कर,
नर-पाश्विकता से जूझ कर,
स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,
अपनी योग्यता से आगे बढ. ।
मत सह पुरूष के अत्याचार,
द्ढ संकल्प लेकर,
बढ जा जीवन पथ पर,
निराश न हो,
घबरा कर कर्म पथ से,
विचलित न हो,
तू अडिग रह, अटल रह,
अपने लक्ष्य पर,
तेरी विजय निश्चित है ।
तू अपनी "पहचान" को,
विवशता का रूप न दे,
वर्ना नर भेडि़ए तुझे,
समूचा ही निगल जाएंगे ।
खोकर अपनी अस्मिता को,
कुछ पा लेना ,
जीवन की सार्थकता नहीं,
आत्म ग्लानि तुझे,
नर्काग्नि में जलायेगी ।
इसलिए तू सजग हो जा,
तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,
विजय लक्ष्मी बन,
कर्म में प्रवत्त हो,
अपने लक्ष्य तक पहुंच
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
और
जीवन की महान उपलब्धि भी