{{KKGlobal}}{{KKRachna |रचनाकार=रमा द्विवेदी }}{{KKCatKavita}}<poem>पद को पाने के लिए<br>साज़िश हुई है ज़िन्दगी ।<br>ज़िन्दगी। किस तरह सिक्का जमे,<br>दूभर हुई है ज़िन्दगी ॥<br><br>ज़िन्दगी॥ शकुनी की चालाकियाँ <br> आज भी तो कम नहीं ।<br>नहीं। भीष्म की चतुराइयों में भी,<br>सिर झुकाती ज़िन्दगी ॥ <br><br>ज़िन्दगी॥ आँख से सब देखते हैं,<br>पर कुछ नही कह पाते हैं ।<br>हैं। सच्चाई का दांव भी,<br>हार जाती ज़िन्दगी ॥ <br><br>ज़िन्दगी॥ दुर्योधन की महत्वाकांक्षाएँ<br>आज भी हर घर में हैं ।<br>हैं। कर्ण की अहंकारिता<br>नष्ट करती ज़िन्दगी ॥<br> <br>ज़िन्दगी॥ दु:शासन आज भी तो<br>द्रौपदी का चीर हैं हर रहे ।<br>रहे। इक्कीसवीं-सदी में भी<br>क्यों नग्न होती ज़िन्दगी ॥ <br><br>ज़िन्दगी॥ द्रौपदी के अपमान का<br>प्रतिशोध है यह ज़िन्दगी ।<br>ज़िन्दगी। युद्ध की संभावना का<br>दंश है यह ज़िन्दगी ॥<br> <br>ज़िन्दगी॥ धृतराष्ट्र की धृष्टता की ,<br>मोहताज़ है यह ज़िन्दगी ।<br>ज़िन्दगी। जीत में भी हार का<br>अहसास सी है ज़िन्दगी ॥ <br> <br>ज़िन्दगी॥ भारत की आजादी ने<br>नारियों को क्या दिया ?<br>भ्रूण-हत्या,वधु-हत्या,नग्न तन-मन<br>यही सब देती रही है ज़िन्दगी ॥ <br> <br>ज़िन्दगी॥ आधुनिक सभ्य समाज में भी,<br>नारी इंसान न बन सकी,<br>माँ,बहिन,पत्नी,प्रेयसी बन ,<br>बस पिस रही है ज़िन्दगी ॥ <br> <br>ज़िन्दगी॥ कौन सी यह सभ्यता है,<br>कुछ समझ आता नहीं।<br>खुश यहाँ कोई नहीं,<br>बस मिट रही है ज़िन्दगी ॥ <br>ज़िन्दगी॥ <br/poem>