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तुम! | तुम! |
12:44, 29 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
तुम!
कविता के नाम पर सुरक्ष-खाई
खोदने वाले
राशन-तेल के सवाल पर ओ बीवी के सामने
घिग्घी बंध जाती है
लेकिन जब देखो तब
क्यूबा-वियतनाम की बातें चोदने वाले
पब्लिक-गार्डन में मुरझाते फूलों की फ़िक्र में
दुबले होते रहते हो लेकिन
अपने कमरे की दीवारों का उघड़ता पलस्तर
दिखलाई नहीं देता
अकाल भुखमरी को टाइम्स आफ़ इण्डिया के
ज़रिए जानते हो
दो-चार आँसू भी बहा लते हो
फ़र्ज के नाम पर
लेकिन उसके बाद! -- दिन-दोपहरी में भी
शहर के सबसे ज़्यादा
व्यस्त चौराहे पर स्थित होटल में बैठकर
अनुपस्थित अंधेरे की शिकायत करते हो
खिलाफ़त करते हो
एक पल को भी तुम्हारा उत्साह
अपने गरेबाँ में नहीं झाँकता
आराम की साँस नहीं लेता
'जनता' को कमर-तोड़ गठरी की तरह
पीठ पर लाद रखा है और
बीबी के गर्म पहलू में सराबोर होते वक़्त भी
उसे नहीं उतारते
खादी की सफ़ेद झक पोशाक के बावजूद
लाल नकाब डाटे रहने वाले तुम
कभी भूले-भटके भी तो
अपनी खोई हुई शर्म नहीं गुहारते
तुम... तुम
कुत्ते की नहीं!
हवा का रूख़ देख कर टेढ़ी या सीधी
होने वाली
हिन्दी लेखक की दुम
तुम!