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चिनगारी बनकर फट न पड़ें | चिनगारी बनकर फट न पड़ें |
20:35, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
वह जो माँ है, वोऽऽ रही
रोकने की कोशिश कर रही है, अपना बलात्कार;
छाती से कसकर चिपकाए हुए, अपना शिशु !
वो रहे... छीनकर उसकी गोद का बच्चा
मुट्ठी में दबोचकर उसका सिर,
दो-ढाई पेंच मरोड़ और तोड़ दी गरदन !
उछाल दिया, उस चरमर गुड्डे को,
नदी के अतल में !
तुम भी देखते रहे, खड़े-खड़े, मैं भी बना रहा दर्शक
इसके बाद, क्या फ़ायदा किसी के पद-त्याग की मांग से?
आज, अगर छीनकर नहीं ला सकते,
मरघट हुए गाँव !
अगर इकट्ठा न कर पाओ , तमाम सूखे हुए आँसू !
अगर... अगर...
चिनगारी बनकर फट न पड़ें
तमाम स्तम्भित शोक !
बांग्ला से अनुवाद : सुशील गुप्ता