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उसकी इच्छा थी, उठा गूँज गर्जन गभीर,
मैं धूमकेतु - सा उगा तिमिर का हॄदय हृदय चीर।
मृत्तिका - तिलक ले कर प्रभु का आदेश मान,
वाणी, पर, अब तक विफल मुझे दे रही खेद,
टकराकर भी सकती न वज्र का हॄदय हृदय भेद।
जिनके हित मैंने कण्ठ फाड़कर किया नाद,
है टिकी तपस्या पर विधि की रचना विशाल।
तप से प्रदीप्त मार्तण्ड, चन्द्र शीतल मनोज्ञ,
तप से स्थित उडु नभ में ले आसन यथा-योग्य।
 
सागर में तप परिणाह, सरित में खर प्रवाह,
घन में जीवन, गिरि में नूतन प्रस्रवण-चाह।
 
द्रुम के जीवन में सुमन, सुमन में तप सुगन्ध;
तृण में हरीतिमा, व्याप्ति महा नभ में विबन्ध।
 
नर में तप पौरुष-शिखा, शौर्य का हेम-हास,
नारी में अर्जित पुराचीन तप का प्रकाश।
 
जग के विकास-क्रम में जो जितना महीयान,
है उसका तप उतना चिरायु, उतना महान।
 
मानव का पद सर्वोच्च, अतः, तप भी कठोर,
अपनी पीड़ा का कभी उसे मिलता न छोर।
 
रे पथिक! मुदित मन झेल, मिलें जो अन्तराय,
जलने दे मन का बोझ, नहीं कोई उपाय।
 
'''रचनाकाल: १९४१'''
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