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धुँधली हुई हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।
 
'''रचनाकाल: १९४३'''
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