"अध्याय २ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। | ||
+ | तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥२- ३७॥ | ||
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सो अर्जुन! दृढ़ निश्चय करिकै , | सो अर्जुन! दृढ़ निश्चय करिकै , | ||
उठ , जुद्ध कौ अब तत्पर हुइ जा . | उठ , जुद्ध कौ अब तत्पर हुइ जा . | ||
यदि मरै स्वर्ग निश्चय मिलिहै, | यदि मरै स्वर्ग निश्चय मिलिहै, | ||
यदि जिए धरा को नृप हुइ जा | यदि जिए धरा को नृप हुइ जा | ||
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+ | सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। | ||
+ | ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२- ३८॥ | ||
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जय और पराजय लाभ हानि , | जय और पराजय लाभ हानि , | ||
सुख दुःख में भाव समत्व भयो, | सुख दुःख में भाव समत्व भयो, | ||
यहि भावः सों जुद्ध करौ अर्जुन! | यहि भावः सों जुद्ध करौ अर्जुन! | ||
तो नैकु न पाप सों युक्त भयो | तो नैकु न पाप सों युक्त भयो | ||
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+ | एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु। | ||
+ | बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥२- ३९॥ | ||
+ | </span> | ||
यहि ज्ञान परक सब ज्ञान कहयो, | यहि ज्ञान परक सब ज्ञान कहयो, | ||
निष्काम परक अब पार्थ सुनौ, | निष्काम परक अब पार्थ सुनौ, | ||
अथ कर्म के बंध विनाश करौ , | अथ कर्म के बंध विनाश करौ , | ||
निष्काम कौ योग करौ व् गुनौ | निष्काम कौ योग करौ व् गुनौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। | ||
+ | स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२- ४०॥ | ||
+ | </span> | ||
निष्काम करम कौ योग महा, | निष्काम करम कौ योग महा, | ||
फल रूप को दोष भी होत नहीं, | फल रूप को दोष भी होत नहीं, | ||
भावः सिन्धु तरति हैं जन सोऊ, | भावः सिन्धु तरति हैं जन सोऊ, | ||
भय जन्म मरन मिटहैं सबहीं | भय जन्म मरन मिटहैं सबहीं | ||
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+ | व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। | ||
+ | बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥२- ४१॥ | ||
+ | </span> | ||
निष्कामहूँ मारग कुरुनन्दन , | निष्कामहूँ मारग कुरुनन्दन , | ||
निश्चय मति एक ही होत तथा. | निश्चय मति एक ही होत तथा. | ||
बिनु ज्ञान जनान सकामी की, | बिनु ज्ञान जनान सकामी की, | ||
मति भेद अनंता होत यथा | मति भेद अनंता होत यथा | ||
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+ | यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। | ||
+ | वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२- ४२॥ | ||
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जिन होत सकामी तिन जन की, | जिन होत सकामी तिन जन की, | ||
फल रूप में प्रीति प्रतीति घनी, | फल रूप में प्रीति प्रतीति घनी, | ||
तिन भोग करम जीवन मृत्यु , | तिन भोग करम जीवन मृत्यु , | ||
पुनि आवागमन की रीति बनी | पुनि आवागमन की रीति बनी | ||
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+ | कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। | ||
+ | क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२- ४३॥ | ||
+ | </span> | ||
फल करमन कौ ऐश्वर्य घन्यो, | फल करमन कौ ऐश्वर्य घन्यो, | ||
अविवेकी जन कौ मोहत है, | अविवेकी जन कौ मोहत है, | ||
मधु बानी माहीं कहत जग में , | मधु बानी माहीं कहत जग में , | ||
यही मांहीं सबहीं सुख होवत हैं | यही मांहीं सबहीं सुख होवत हैं | ||
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+ | भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। | ||
+ | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२- ४४॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन भोगन माहीं प्रतीति घनी, | जिन भोगन माहीं प्रतीति घनी, | ||
तिनको यहि बानी मोहत है, | तिनको यहि बानी मोहत है, | ||
मति नैकु न होवत निर्णय की, | मति नैकु न होवत निर्णय की, | ||
तिन मिथ्य प्रलोभन सोहत है | तिन मिथ्य प्रलोभन सोहत है | ||
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+ | त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। | ||
+ | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२- ४५॥ | ||
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सब वेद प्रकाशक हैं जग में, | सब वेद प्रकाशक हैं जग में, | ||
तू अर्जुन निष्कामी हुइ जा. | तू अर्जुन निष्कामी हुइ जा. | ||
बन योग-क्षेम सुख-दुःख विहीन, | बन योग-क्षेम सुख-दुःख विहीन, | ||
नित स्थित आत्म रमण हुइ जा | नित स्थित आत्म रमण हुइ जा | ||
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+ | यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। | ||
+ | तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२- ४६॥ | ||
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परिपूरण जलनिधि जाहि मिलै, | परिपूरण जलनिधि जाहि मिलै, | ||
तिन कौन प्रयोजन छोटन सों. | तिन कौन प्रयोजन छोटन सों. | ||
अथ ब्रह्म ज्ञान जिन विप्रन कौ, | अथ ब्रह्म ज्ञान जिन विप्रन कौ, | ||
वे का करिबौ, इन वेदन सों | वे का करिबौ, इन वेदन सों | ||
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+ | कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। | ||
+ | मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२- ४७॥ | ||
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अधिकार तेरौ बस करमन में, | अधिकार तेरौ बस करमन में, | ||
फल करमन में नैकहूँ नाहीं . | फल करमन में नैकहूँ नाहीं . | ||
करमन में तबहूँ प्रीति रहै, | करमन में तबहूँ प्रीति रहै, | ||
अकर्मठता सों नेह नहीं | अकर्मठता सों नेह नहीं | ||
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+ | योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय। | ||
+ | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२- ४८॥ | ||
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आसक्ति त्याग धनञ्जय हे ! | आसक्ति त्याग धनञ्जय हे ! | ||
तू सिद्धि असिद्धिन सम हुइ जा . | तू सिद्धि असिद्धिन सम हुइ जा . | ||
योग-स्थित भाव समत्व हिया, | योग-स्थित भाव समत्व हिया, | ||
धरि भाव हिया तू जुद्ध में जा | धरि भाव हिया तू जुद्ध में जा | ||
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+ | दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय। | ||
+ | बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२- ४९॥ | ||
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जिन बुद्धि योग सों कर्म सकाम, | जिन बुद्धि योग सों कर्म सकाम, | ||
करैं अति तुच्छ हैं , दीन वही. | करैं अति तुच्छ हैं , दीन वही. | ||
जिन बुद्धि समत्व सहाय लियौ, | जिन बुद्धि समत्व सहाय लियौ, | ||
किरपा सों कृपालु के हीन नहीं | किरपा सों कृपालु के हीन नहीं | ||
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+ | बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। | ||
+ | तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२- ५०॥ | ||
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जिन बुद्धि समत्व , वे पुण्य पाप , | जिन बुद्धि समत्व , वे पुण्य पाप , | ||
बंधन मांहीं लपटात नहीं, | बंधन मांहीं लपटात नहीं, | ||
जिन बुद्धि समत्व सों योग भयौ, | जिन बुद्धि समत्व सों योग भयौ, | ||
जना पावति ब्रह्म विराट वही | जना पावति ब्रह्म विराट वही | ||
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+ | कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। | ||
+ | जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥२- ५१॥ | ||
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अस बुद्धि योग सों ज्ञानी जना, | अस बुद्धि योग सों ज्ञानी जना, | ||
फल करमन बंधन सों छुटीहैं | फल करमन बंधन सों छुटीहैं | ||
अथ जनम के बंधन छूट अमर | अथ जनम के बंधन छूट अमर | ||
पद पावै परम प्रभु सों मिलिहैं | पद पावै परम प्रभु सों मिलिहैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। | ||
+ | तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२- ५२॥ | ||
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जेहि काल मोह के दल-दल सों | जेहि काल मोह के दल-दल सों | ||
हे अर्जुन !बुद्धि तोरी उबरै | हे अर्जुन !बुद्धि तोरी उबरै | ||
तब पायौ विराग यथारथ में, | तब पायौ विराग यथारथ में, | ||
यहि ज्ञान सों ही तौ जनम संवरे | यहि ज्ञान सों ही तौ जनम संवरे | ||
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+ | श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। | ||
+ | समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२- ५३॥ | ||
+ | </span> | ||
हे अर्जुन! जब तेरी मति को, | हे अर्जुन! जब तेरी मति को, | ||
सिद्धांत विविध भरमावत हों, | सिद्धांत विविध भरमावत हों, | ||
तब ब्रह्म को रूप अचल स्थिर , | तब ब्रह्म को रूप अचल स्थिर , | ||
करि चित्त में योग कौ साधत हैं | करि चित्त में योग कौ साधत हैं | ||
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+ | स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। | ||
+ | स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२- ५४॥ | ||
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अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
हे केशव! स्थित प्रज्ञ कहाँ ? | हे केशव! स्थित प्रज्ञ कहाँ ? | ||
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का बात विशेषहूँ होत कहौ? | का बात विशेषहूँ होत कहौ? | ||
का लक्षण और कैसे डोलै? | का लक्षण और कैसे डोलै? | ||
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+ | प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। | ||
+ | आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२- ५५॥ | ||
+ | </span> | ||
सुनि अर्जुन! स्थित प्रज्ञ जना, | सुनि अर्जुन! स्थित प्रज्ञ जना, | ||
मन मांही बसी जब चाह तजै. | मन मांही बसी जब चाह तजै. | ||
तब आतमा से हू आतमा में, | तब आतमा से हू आतमा में, | ||
संतुष्ट, कौ स्थित प्रज्ञ कहैं | संतुष्ट, कौ स्थित प्रज्ञ कहैं | ||
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+ | दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। | ||
+ | वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२- ५६॥ | ||
+ | </span> | ||
सुख दुःखन बिनु उद्वेग रहै, | सुख दुःखन बिनु उद्वेग रहै, | ||
भय राग क्रोध सों अज्ञ जना. | भय राग क्रोध सों अज्ञ जना. | ||
और बीत गयी स्पर्हा भी | और बीत गयी स्पर्हा भी | ||
अस मुनि ही स्थित प्रज्ञ मना | अस मुनि ही स्थित प्रज्ञ मना | ||
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+ | यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। | ||
+ | नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ५७॥ | ||
+ | </span> | ||
बहु भांति सनेह विहीन रहैं | बहु भांति सनेह विहीन रहैं | ||
तबहूँ नाहीं रागहिं द्वेष करें, | तबहूँ नाहीं रागहिं द्वेष करें, | ||
शुभ और अशुभ सम भाव हिया, | शुभ और अशुभ सम भाव हिया, | ||
वही स्थिर बुद्धि विशेष नरे | वही स्थिर बुद्धि विशेष नरे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। | ||
+ | इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ५८॥ | ||
+ | </span> | ||
जस कच्छप अंग समेट त है, | जस कच्छप अंग समेट त है, | ||
इन्द्रिन कौ इन्द्रिन विषयन सौं, | इन्द्रिन कौ इन्द्रिन विषयन सौं, | ||
तस लेत समेट महा ज्ञानी | तस लेत समेट महा ज्ञानी | ||
और स्थिर बुद्धि वही जन सों | और स्थिर बुद्धि वही जन सों | ||
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+ | विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। | ||
+ | रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२- ५९॥ | ||
+ | </span> | ||
सब राग विनासन होत नहीं, | सब राग विनासन होत नहीं, | ||
पर होत परे वे विषयन सों. | पर होत परे वे विषयन सों. | ||
पर इनके राग परे हुइ के | पर इनके राग परे हुइ के | ||
पर ब्रह्महिं लय होवत मन सों | पर ब्रह्महिं लय होवत मन सों | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। | ||
+ | इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥२- ६०॥ | ||
+ | </span> | ||
नित यज्ञ करैं, तिन ज्ञानिन कौ | नित यज्ञ करैं, तिन ज्ञानिन कौ | ||
भी मन प्रमथित हुइ जात कभी. | भी मन प्रमथित हुइ जात कभी. | ||
इन इन्द्रिन सों सब हारि गए . | इन इन्द्रिन सों सब हारि गए . | ||
मति ज्ञानिहूँ की हरि लेत सभी | मति ज्ञानिहूँ की हरि लेत सभी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। | ||
+ | वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ६१॥ | ||
+ | </span> | ||
वश मांहीं करै तिन इन्द्रिन कौ, | वश मांहीं करै तिन इन्द्रिन कौ, | ||
फिरि चित्त समाहित होत जना. | फिरि चित्त समाहित होत जना. | ||
अथ मोरे परायण होवत जो, | अथ मोरे परायण होवत जो, | ||
अचला चित संयत होत मना | अचला चित संयत होत मना | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। | ||
+ | सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२- ६२॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन चित्त मांही विषयन चिंतन, | जिन चित्त मांही विषयन चिंतन, | ||
धरि विषयन में आसक्ति घनी. | धरि विषयन में आसक्ति घनी. | ||
आसक्ति सों अनुराग, राग में , | आसक्ति सों अनुराग, राग में , | ||
बाधा क्रोध, निमित्त बनी | बाधा क्रोध, निमित्त बनी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। | ||
+ | स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२- ६३॥ | ||
+ | </span> | ||
पुनि क्रोध सों ही अविवेक बढ्यो, | पुनि क्रोध सों ही अविवेक बढ्यो, | ||
अविवेक सों सुमिरन क्षीण भयो. | अविवेक सों सुमिरन क्षीण भयो. | ||
पुनि ज्ञान विवेक विनाशन सों , | पुनि ज्ञान विवेक विनाशन सों , | ||
सब श्रेयस साधन हीन भयो | सब श्रेयस साधन हीन भयो | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। | ||
+ | आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥२- ६४॥ | ||
+ | </span> | ||
जिनके मन अंतर्मन हे अर्जुन! | जिनके मन अंतर्मन हे अर्जुन! | ||
बहु रागहिं द्वेशन मुक्त भये, | बहु रागहिं द्वेशन मुक्त भये, | ||
तिन इन्द्रिय भोगन भोग के हूँ , | तिन इन्द्रिय भोगन भोग के हूँ , | ||
निज पावनता सों युक्त भये | निज पावनता सों युक्त भये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। | ||
+ | प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥२- ६५॥ | ||
+ | </span> | ||
जिनके हिय मांही पावनता, | जिनके हिय मांही पावनता, | ||
तिनके दुःख और उद्वेग गए, | तिनके दुःख और उद्वेग गए, | ||
जिनके हिय हरषित तासु मति , | जिनके हिय हरषित तासु मति , | ||
बिनु संशय संयत वेगि भये | बिनु संशय संयत वेगि भये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। | ||
+ | न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥२- ६६॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन साधन हीन तो बुद्धि कहाँ?, | जिन साधन हीन तो बुद्धि कहाँ?, | ||
और बुद्धिहीन के भाव कहाँ? | और बुद्धिहीन के भाव कहाँ? | ||
जिन भावहीन तिन शांति हीन, | जिन भावहीन तिन शांति हीन, | ||
बिनु शांति भाव सुख भाव कहाँ? | बिनु शांति भाव सुख भाव कहाँ? | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते। | ||
+ | तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥२- ६७॥ | ||
+ | </span> | ||
बहु विषयन में इन्द्रिय विचरे, | बहु विषयन में इन्द्रिय विचरे, | ||
जेहि इन्द्रिय सों मन मेल करे. | जेहि इन्द्रिय सों मन मेल करे. | ||
वही एक हरन मति ऐसी करै , | वही एक हरन मति ऐसी करै , | ||
जस वायु जल माहीं नाव हरे | जस वायु जल माहीं नाव हरे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। | ||
+ | इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ६८॥ | ||
+ | </span> | ||
जेहि मानुष की हे! महाबाहो ! | जेहि मानुष की हे! महाबाहो ! | ||
सब इन्द्रिय, इन्द्रिन विषयन को, | सब इन्द्रिय, इन्द्रिन विषयन को, | ||
करै वश में स्थितप्रज्ञ वही, | करै वश में स्थितप्रज्ञ वही, | ||
वही अतिशय प्रिय मधुसूदन को | वही अतिशय प्रिय मधुसूदन को | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। | ||
+ | यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२- ६९॥ | ||
+ | </span> | ||
जो रात है भौतिक प्रानिन की, | जो रात है भौतिक प्रानिन की, | ||
सो प्रात है यौगिक योगन की, | सो प्रात है यौगिक योगन की, | ||
जो प्रात है ऐहिक जन-जन की, | जो प्रात है ऐहिक जन-जन की, | ||
सो रात है यौगिक योगन की | सो रात है यौगिक योगन की | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। | ||
+ | तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२- ७०॥ | ||
+ | </span> | ||
बहु भांति विविध सब नद नदियाँ , | बहु भांति विविध सब नद नदियाँ , | ||
जस सागर माहीं समावत हैं, | जस सागर माहीं समावत हैं, | ||
तस स्थित प्रज्ञ भी काम विहीन हो, | तस स्थित प्रज्ञ भी काम विहीन हो, | ||
शांति परम अति पावत है | शांति परम अति पावत है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः। | ||
+ | निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२- ७१॥ | ||
+ | </span> | ||
जो मानुष ममता काम अहंता, | जो मानुष ममता काम अहंता, | ||
त्याग सों निस्पृह होवत है, | त्याग सों निस्पृह होवत है, | ||
वही पावै परम परमेश्वर को, | वही पावै परम परमेश्वर को, | ||
अथ शांति परम कौ सेवत है | अथ शांति परम कौ सेवत है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। | ||
+ | स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२- ७२॥ | ||
+ | </span> | ||
हे अर्जुन! ब्रह्म समाहित जो, | हे अर्जुन! ब्रह्म समाहित जो, | ||
तस मानुष की यही गति है, | तस मानुष की यही गति है, |
17:59, 9 जनवरी 2010 का अवतरण
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥२- ३७॥
सो अर्जुन! दृढ़ निश्चय करिकै ,
उठ , जुद्ध कौ अब तत्पर हुइ जा .
यदि मरै स्वर्ग निश्चय मिलिहै,
यदि जिए धरा को नृप हुइ जा
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२- ३८॥
जय और पराजय लाभ हानि ,
सुख दुःख में भाव समत्व भयो,
यहि भावः सों जुद्ध करौ अर्जुन!
तो नैकु न पाप सों युक्त भयो
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥२- ३९॥
यहि ज्ञान परक सब ज्ञान कहयो,
निष्काम परक अब पार्थ सुनौ,
अथ कर्म के बंध विनाश करौ ,
निष्काम कौ योग करौ व् गुनौ
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२- ४०॥
निष्काम करम कौ योग महा,
फल रूप को दोष भी होत नहीं,
भावः सिन्धु तरति हैं जन सोऊ,
भय जन्म मरन मिटहैं सबहीं
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥२- ४१॥
निष्कामहूँ मारग कुरुनन्दन ,
निश्चय मति एक ही होत तथा.
बिनु ज्ञान जनान सकामी की,
मति भेद अनंता होत यथा
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२- ४२॥
जिन होत सकामी तिन जन की,
फल रूप में प्रीति प्रतीति घनी,
तिन भोग करम जीवन मृत्यु ,
पुनि आवागमन की रीति बनी
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२- ४३॥
फल करमन कौ ऐश्वर्य घन्यो,
अविवेकी जन कौ मोहत है,
मधु बानी माहीं कहत जग में ,
यही मांहीं सबहीं सुख होवत हैं
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२- ४४॥
जिन भोगन माहीं प्रतीति घनी,
तिनको यहि बानी मोहत है,
मति नैकु न होवत निर्णय की,
तिन मिथ्य प्रलोभन सोहत है
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२- ४५॥
सब वेद प्रकाशक हैं जग में,
तू अर्जुन निष्कामी हुइ जा.
बन योग-क्षेम सुख-दुःख विहीन,
नित स्थित आत्म रमण हुइ जा
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२- ४६॥
परिपूरण जलनिधि जाहि मिलै,
तिन कौन प्रयोजन छोटन सों.
अथ ब्रह्म ज्ञान जिन विप्रन कौ,
वे का करिबौ, इन वेदन सों
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२- ४७॥
अधिकार तेरौ बस करमन में,
फल करमन में नैकहूँ नाहीं .
करमन में तबहूँ प्रीति रहै,
अकर्मठता सों नेह नहीं
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२- ४८॥
आसक्ति त्याग धनञ्जय हे !
तू सिद्धि असिद्धिन सम हुइ जा .
योग-स्थित भाव समत्व हिया,
धरि भाव हिया तू जुद्ध में जा
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२- ४९॥
जिन बुद्धि योग सों कर्म सकाम,
करैं अति तुच्छ हैं , दीन वही.
जिन बुद्धि समत्व सहाय लियौ,
किरपा सों कृपालु के हीन नहीं
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२- ५०॥
जिन बुद्धि समत्व , वे पुण्य पाप ,
बंधन मांहीं लपटात नहीं,
जिन बुद्धि समत्व सों योग भयौ,
जना पावति ब्रह्म विराट वही
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥२- ५१॥
अस बुद्धि योग सों ज्ञानी जना,
फल करमन बंधन सों छुटीहैं
अथ जनम के बंधन छूट अमर
पद पावै परम प्रभु सों मिलिहैं
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२- ५२॥
जेहि काल मोह के दल-दल सों
हे अर्जुन !बुद्धि तोरी उबरै
तब पायौ विराग यथारथ में,
यहि ज्ञान सों ही तौ जनम संवरे
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२- ५३॥
हे अर्जुन! जब तेरी मति को,
सिद्धांत विविध भरमावत हों,
तब ब्रह्म को रूप अचल स्थिर ,
करि चित्त में योग कौ साधत हैं
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२- ५४॥
अर्जुन उवाच
हे केशव! स्थित प्रज्ञ कहाँ ?
कब कैसे बैठे और बोलै ?
का बात विशेषहूँ होत कहौ?
का लक्षण और कैसे डोलै?
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२- ५५॥
सुनि अर्जुन! स्थित प्रज्ञ जना,
मन मांही बसी जब चाह तजै.
तब आतमा से हू आतमा में,
संतुष्ट, कौ स्थित प्रज्ञ कहैं
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२- ५६॥
सुख दुःखन बिनु उद्वेग रहै,
भय राग क्रोध सों अज्ञ जना.
और बीत गयी स्पर्हा भी
अस मुनि ही स्थित प्रज्ञ मना
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ५७॥
बहु भांति सनेह विहीन रहैं
तबहूँ नाहीं रागहिं द्वेष करें,
शुभ और अशुभ सम भाव हिया,
वही स्थिर बुद्धि विशेष नरे
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ५८॥
जस कच्छप अंग समेट त है,
इन्द्रिन कौ इन्द्रिन विषयन सौं,
तस लेत समेट महा ज्ञानी
और स्थिर बुद्धि वही जन सों
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२- ५९॥
सब राग विनासन होत नहीं,
पर होत परे वे विषयन सों.
पर इनके राग परे हुइ के
पर ब्रह्महिं लय होवत मन सों
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥२- ६०॥
नित यज्ञ करैं, तिन ज्ञानिन कौ
भी मन प्रमथित हुइ जात कभी.
इन इन्द्रिन सों सब हारि गए .
मति ज्ञानिहूँ की हरि लेत सभी
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ६१॥
वश मांहीं करै तिन इन्द्रिन कौ,
फिरि चित्त समाहित होत जना.
अथ मोरे परायण होवत जो,
अचला चित संयत होत मना
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२- ६२॥
जिन चित्त मांही विषयन चिंतन,
धरि विषयन में आसक्ति घनी.
आसक्ति सों अनुराग, राग में ,
बाधा क्रोध, निमित्त बनी
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२- ६३॥
पुनि क्रोध सों ही अविवेक बढ्यो,
अविवेक सों सुमिरन क्षीण भयो.
पुनि ज्ञान विवेक विनाशन सों ,
सब श्रेयस साधन हीन भयो
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥२- ६४॥
जिनके मन अंतर्मन हे अर्जुन!
बहु रागहिं द्वेशन मुक्त भये,
तिन इन्द्रिय भोगन भोग के हूँ ,
निज पावनता सों युक्त भये
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥२- ६५॥
जिनके हिय मांही पावनता,
तिनके दुःख और उद्वेग गए,
जिनके हिय हरषित तासु मति ,
बिनु संशय संयत वेगि भये
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥२- ६६॥
जिन साधन हीन तो बुद्धि कहाँ?,
और बुद्धिहीन के भाव कहाँ?
जिन भावहीन तिन शांति हीन,
बिनु शांति भाव सुख भाव कहाँ?
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥२- ६७॥
बहु विषयन में इन्द्रिय विचरे,
जेहि इन्द्रिय सों मन मेल करे.
वही एक हरन मति ऐसी करै ,
जस वायु जल माहीं नाव हरे
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ६८॥
जेहि मानुष की हे! महाबाहो !
सब इन्द्रिय, इन्द्रिन विषयन को,
करै वश में स्थितप्रज्ञ वही,
वही अतिशय प्रिय मधुसूदन को
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२- ६९॥
जो रात है भौतिक प्रानिन की,
सो प्रात है यौगिक योगन की,
जो प्रात है ऐहिक जन-जन की,
सो रात है यौगिक योगन की
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२- ७०॥
बहु भांति विविध सब नद नदियाँ ,
जस सागर माहीं समावत हैं,
तस स्थित प्रज्ञ भी काम विहीन हो,
शांति परम अति पावत है
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२- ७१॥
जो मानुष ममता काम अहंता,
त्याग सों निस्पृह होवत है,
वही पावै परम परमेश्वर को,
अथ शांति परम कौ सेवत है
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२- ७२॥
हे अर्जुन! ब्रह्म समाहित जो,
तस मानुष की यही गति है,
नाहीं मोहित होत मरण काले,
और ब्रह्म में होत प्रतिष्ठित है