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सैलाब / शीन काफ़ निज़ाम
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14:57, 10 जनवरी 2010
दूर से
अब बहुत नज़दीक है
नज़दीक तर
नज़दीकतर
फिर वही बिलकुल वही बरसों पुरानी
घड़घड़ाहट
आओ
हम सब
फिर दुआ माँगें
नदियाँ नाले परिंदे
क़िस्से
घड़ घड़ड़ घड़ घड़घड़ाहट
घड़ड़ घड़ घड़ घड़घड़ाहट
घड़ड़ घड़ घड़ घड़घड़ाहट
घड़ड़ घड़ घड़ घड़घड़ाहट
रेगज़ारों की हथेली पर
पसरतीं
गडमड
लकीरें
देखता हूँ
सोचता हूँ
ज़िस्म में पसली नहीं है
नाफ़ की एवज़ इक गहरा कुआँ है
हर तरफ़
अब ख़ाक का गहरा धुआँ है
फल कहाँ है
</poem>
Shrddha
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