|रचनाकार=घनानंद
}}
::::'''कवित्त'''<br>{{KKCatKavitt}}<brpoem>भए अति निठुर, मिटाय पहचानि डारी,<br>::याही दुख में हमैं जक लागी हाय हाय है।<br>तुम तो निपट निरदई, गई भूलि सुधि,<br>::हमैं सूल सेलनि सो क्योहूँन भुलाय है।<br>मीठे मीठे बोल बोलि ठगी पहिलें तौ तब,<br>::अब जिय जारत कहौ धौ कौन न्याय है।<br>सुनी है कै नाहीं, यह प्रगट कहावति जू,<br>::काहू कलपायहै सु कैसे कल पायहै।। 7 ।।पायहै॥<br/poem>