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अतुल जिसकी पुण्य पितर-प्रीति--
स्वकुल-मर्यादा, विनय, नय-नीति।
:और उस अग्रज-बधू की ओर,:वत्स, देखो तुम निहार-निहोर।:हाँ, जिसे वे गहन-कण्टक-शूल,:बन गये गॄहवाटिका के फूल!:और देखो उस अनुज की ओर,:आह! वह लाक्ष्मण्य कैसा घोर!:वह विकट व्रत और वह दृढ़ भक्ति,:एक में सबकी अटल अनुरक्ति।:और देखो इस अनुज की ओर,:हो रहा जो शोक-मग्न विभोर।:आज जो सब से अधिक उद्भ्रान्त,:सुमन-सम हिमबाष्पभाराक्रान्त!:वत्स, देखो जननियों की ओर,:आज जिनकी भोग-निशि का भोर!":"हाय भगवन्! क्यों हमारा नाम?:अब हमें इस लोक में क्या काम?:भूमि पर हम आज केवल भार,:क्यों सहे संसार हाहाकार?:क्यों अनाथों की यहाँ हो भीड़?:जीव-खग उड़ जाय अब निज नीड़।"
</poem>
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