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:भूली-भटकी मृगी अन्त में अपनी ठौर आ चुकी थी॥
कटि के नीचे चिकुर-जाल में, उलझ रहा था बायाँ हाथ,
:खेल रहा हो ज्यों लहरों से, लोल कमल भौरों के साथ।
दायाँ हाथ इस लिए था सुरभित--चित्र-विचित्र-सुमन-माला,
:टाँगा धनुष कि कल्पलता पर, मनसिज ने झूला डाला!
पर सन्देह-दोल पर ही था, लक्ष्मण का मन झूल रहा,
:भटक भावनाओं के भ्रम में, भीतर ही था भूल रहा।
पड़े विचार-चक्र में थे वे, कहाँ न जाने कूल रहा;
:आज जागरित-स्वप्न-शाल यह, सम्मुख कैसा फूल रहा!
 
देख उन्हें विस्मित विशेष वह, सुस्मितवदनी ही बोली-
:(रमणी की मूरत मनोज्ञ थी, किन्तु न थी सूरत भोली)
"शूरवीर होकर अबला को, देख सुभग, तुम थकित हुए;
:संसृति की स्वाभाविकता पर, चंचल होकर चकित हुए!
 
प्रथम बोलना पड़ा मुझे ही, पूछी तुमने बात नहीं,
:इससे पुरुषों की निर्ममता, होती क्या प्रतिभास नहीं?"
सँभल गये थे अब तक लक्ष्मण, वे थोड़े से मुसकाये,
:उत्तर देते हुए उसे फिर, निज गम्भीर भाव लाये-
 
"सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ, तुमनो सहसा देख यहाँ,
:ढलती रात, अकेली बाला, निकल पड़ी तुम कौन कहाँ?
पर अबला कहकर अपने को, तुम प्रगल्भता रखती हो,
:निर्ममता निरीह पुरुषों में, निस्सन्देह निरखती हो!
</poem>
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