|संग्रह=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त
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पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को,
:चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को।
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?"
:विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥"
पूज्य पिता के सहज सत्य परवार सुधाम, धरा, धन को,चले राम, सीता भी उनकेपीछे चलीं गहन वन को।उनके पीछे भी लक्ष्मण थे,कहा राम ने कि ‘‘तुम कहाँ ?’’विनत वदन से उत्तर पाया—‘‘तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।’’ सीता बोलीं कि ‘‘ये "ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले,:पर देवर, तुम त्यागी बनकर,क्यों घर से मुँह मोड़ चले ?’’"उत्तर मिला कि ‘‘आर्य्ये, "आर्य्ये, बरबस, बना न दो मुझको त्यागी,:आर्य-चरण-सेवा में समझो, मुझको भी अपना भागी।।’’ ‘‘क्या कर्तव्य यही है भाई ?’’लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,‘‘आर्य्य, आपके प्रति इन जन नेकब कब क्या कर्तव्य किया ?’’‘‘प्यार किया है तुमने केवल !’’सीता यह कह मुसकाईं,किन्तु राम की उज्जवल आँखेंसफल सीप-सी भर आईं। चारु चंद्र की चंचल किरणें,खेल रहीं हैं जल थल में।स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है,अवनि और अम्बर तल में।पुलक प्रकट करती है धरती,हरित तृणों की नोंकों से।मानों झूम रहें हैं तरु भी,मन्द पवन के झोंकों से।भागी॥"
"क्या ही स्वच्छ चाँदनी कर्तव्य यही है यहहै क्या ही निस्तब्ध निशाभाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,है स्वच्छ-सुमंद गंध वह:"आर्य,आपके प्रति इन जन ने, कब कब क्या कर्तव्य किया?"निरानंद "प्यार किया है कौन दिशा?बंद नहीं अब भी चलते हैंनियति-नटी के कार्य-कलापतुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाईं,पर कितने एकान्त भाव से:किन्तु राम की उज्जवल आँखें,कितने शांत और चुपचाप।सफल सीप-सी भर आईं॥
है बिखेर देती वसुंधरामोती सबके सोने परचारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,रवि बटोर लेता :स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है उनकोसदा सवेरा होने पर।अवनि और विराम-दायिनी अपनीअम्बरतल में।संध्या को दे जाता पुलक प्रकट करती हैधरती, हरित तृणों की नोकों से,शून्य-श्याम तनु जिससे उसकानया रूप छलकाता है।:मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
पंचवटी की छाया में है,सुन्दर पर्ण -कुटीर बना।बना,:जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर,धीर वीर निर्भीक मना।निर्भीकमना,जाग रहा यह कौन धनुर्धर,जब कि भुवन भर सोता है।है?:भोगी कुसुमायुध योगी -सा,बना दृष्टिगत होता है।है॥
किस व्रत में है व्रती वीर यह,निद्रा का यों त्याग किये।किये,राज्यभोग :राजभोग्य के योग्य विपिन में,बैठा आज विराग लिये।बना हुआ है प्रहरी जिसका,उस कुटीर में क्या धन है।है,:जिसकी रक्षा में रत इसका,तन है, मन है, जीवन है।है!
मृत्युलोक मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने,स्वामि -संग जो आयी हैं।आई है,:तीन लोक की लक्ष्मी ने,यह , कुटी आज अपनाई है।वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,:विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
:आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
:मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
और आर्य को राज्य भर कोक्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह,वे प्रजार्थ है क्या ही धारेंगें।निस्तब्ध निशा;व्यस्त रहेंगें हम सब को भी:है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह,निरानंद है कौन दिशा?मानो विवश विसारेंगें।कर विचार लोकोपकार काबंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,हमें न इससे होगा शोक।:पर अपना हित आप नहीं क्याकितने एकान्त भाव से,कर सकता है यह नरलोक।कितने शांत और चुपचाप!
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
:रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
:शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
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