"नदी / रवीन्द्र प्रभात" के अवतरणों में अंतर
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उम्र के- | उम्र के- | ||
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एक पड़ाव के बाद | एक पड़ाव के बाद | ||
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अल्हड़ हो जाती नदी | अल्हड़ हो जाती नदी | ||
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ऊँचाई-निचाई की परवाह के बग़ैर | ऊँचाई-निचाई की परवाह के बग़ैर | ||
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लाँघ जाती परम्परागत भूगोल | लाँघ जाती परम्परागत भूगोल | ||
हहराती- घहराती | हहराती- घहराती | ||
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धड़का जाती गाँव का दिल | धड़का जाती गाँव का दिल | ||
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बेँध जाती शिलाखंडों के पोर -पोर | बेँध जाती शिलाखंडों के पोर -पोर | ||
− | + | अपने सुरमई सौंदर्य, भँवर का वेग | |
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और, विस्तार की स्वतंत्रता के कारण...! | और, विस्तार की स्वतंत्रता के कारण...! | ||
आक्रोशित हो जाती नदी | आक्रोशित हो जाती नदी | ||
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एक पड़ाव के बाद | एक पड़ाव के बाद | ||
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जब बर्दाश्त नहीं कर पाती | जब बर्दाश्त नहीं कर पाती | ||
− | + | पुर्वा-पछुवा का दिलफेंक अंदाज़ | |
− | पुर्वा - पछुवा का दिलफेंक अंदाज़ | + | |
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बहक कर बादलों का उमड़ना - घुमड़ना | बहक कर बादलों का उमड़ना - घुमड़ना | ||
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और, ठेकेदारों का | और, ठेकेदारों का | ||
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बढ़ता हुआ हाथ अपनी ओर | बढ़ता हुआ हाथ अपनी ओर | ||
तब, निगल जाती अचानक | तब, निगल जाती अचानक | ||
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सारा का सारा गाँव | सारा का सारा गाँव | ||
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व्याघ्रमती की तरह...! | व्याघ्रमती की तरह...! | ||
ब्याही जाती नदी | ब्याही जाती नदी | ||
− | + | एक पड़ाव के बाद | |
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जब होता उसे औरत होने का एहसास | जब होता उसे औरत होने का एहसास | ||
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ख़ामोश हो जाती वह | ख़ामोश हो जाती वह | ||
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भावुकता की हद तक | भावुकता की हद तक | ||
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समेट लेती ख़ुद को | समेट लेती ख़ुद को | ||
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पवित्रता की सीमा के भीतर | पवित्रता की सीमा के भीतर | ||
खोंइचा से लुटाती | खोंइचा से लुटाती | ||
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कुछ दोमट -बालू | कुछ दोमट -बालू | ||
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और निकल जाती | और निकल जाती | ||
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अपने गंतव्य की ओर | अपने गंतव्य की ओर | ||
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पिता शिव को प्रणाम कर...! | पिता शिव को प्रणाम कर...! | ||
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समा जाती नदी समुंदर के आगोश में | समा जाती नदी समुंदर के आगोश में | ||
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एक पड़ाव के बाद | एक पड़ाव के बाद | ||
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बंद कर लेती किवाड़ यकायक | बंद कर लेती किवाड़ यकायक | ||
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छोड़ जाती स्मृतियों के रूप में | छोड़ जाती स्मृतियों के रूप में | ||
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अनवरत बहने वाली धाराएँ | अनवरत बहने वाली धाराएँ | ||
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और अपना चेतन अवशेष...! | और अपना चेतन अवशेष...! | ||
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नदी- | नदी- | ||
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एक छोटी सी बच्ची भी है | एक छोटी सी बच्ची भी है | ||
− | + | युवती भी, माँ भी | |
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और, एक पूरा जीवन बोध भी...! | और, एक पूरा जीवन बोध भी...! | ||
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12:29, 4 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
उम्र के-
एक पड़ाव के बाद
अल्हड़ हो जाती नदी
ऊँचाई-निचाई की परवाह के बग़ैर
लाँघ जाती परम्परागत भूगोल
हहराती- घहराती
धड़का जाती गाँव का दिल
बेँध जाती शिलाखंडों के पोर -पोर
अपने सुरमई सौंदर्य, भँवर का वेग
और, विस्तार की स्वतंत्रता के कारण...!
आक्रोशित हो जाती नदी
एक पड़ाव के बाद
जब बर्दाश्त नहीं कर पाती
पुर्वा-पछुवा का दिलफेंक अंदाज़
बहक कर बादलों का उमड़ना - घुमड़ना
और, ठेकेदारों का
बढ़ता हुआ हाथ अपनी ओर
तब, निगल जाती अचानक
सारा का सारा गाँव
व्याघ्रमती की तरह...!
ब्याही जाती नदी
एक पड़ाव के बाद
जब होता उसे औरत होने का एहसास
ख़ामोश हो जाती वह
भावुकता की हद तक
समेट लेती ख़ुद को
पवित्रता की सीमा के भीतर
खोंइचा से लुटाती
कुछ दोमट -बालू
और निकल जाती
अपने गंतव्य की ओर
पिता शिव को प्रणाम कर...!
समा जाती नदी समुंदर के आगोश में
एक पड़ाव के बाद
बंद कर लेती किवाड़ यकायक
छोड़ जाती स्मृतियों के रूप में
अनवरत बहने वाली धाराएँ
और अपना चेतन अवशेष...!
नदी-
एक छोटी सी बच्ची भी है
युवती भी, माँ भी
और, एक पूरा जीवन बोध भी...!