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09:30, 14 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे
कि वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
हवाओं मे लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़ के बिठा लेगी मुझको
मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया
ना आवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया
ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मैं