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तुम महान हो और हीन मैं,
तदपि धूलि-सी अंध्रि-लीन मैं।
दयित, देखते देव भक्ति कीको,
निरखते नहीं नाथ, व्यक्ति को।
तुम बड़े, बने और भी बड़े,
प्रभु दयालु हैं, लौट के मिलो,
न उनके कुटी-द्वार से हिलो।
धिक! प्रतीति भी की न नाथ की,
पर न थी सखी, बात हाथ की।
प्रतिविधान मैं क्या करूँ बता,
इस अनर्थ का भी कहीं पता!
अधम उर्मिले, हाय निर्दया!
पतित नाथ हैं? तू सदाशया?
नियम पालती एक मात्र तू,
सब अपात्र हैं, और पात्र तू?
मुहँ दिखायगी क्या उन्हें अरी;
मर ससंशया, क्यों न तू मरी।
सदय वे, बता किन्तु चंचला,
वह क्षमा सही जायगी भला?
 
’बिसरता नहीं न्याय भी दया,
बस रहो प्रिये, जान मैं गया।
तुम अधीर हो तुच्छ ताप में
रह सकी नहीं आप आप में!
न उस धूप में और मेह में,
तुम रहीं यहाँ राजगेह में।
विदित क्या तुम्हें, देवि, क्या हुआ,
रुधिर स्वेद के रूप में चुआ।विपिन में कभी सो सका न मैं,अधिक क्या कहूँ, रो सका न मैं।वचन ये पुरस्कार में मिले,अहह उर्मिले! हाय उर्मिले!गिन सको, गिनो शूल, जो चुभे,सहज है समालोचना शुभे!कठिन साधना किन्तु तत्व की,प्रथम चाहिए सिद्धि सत्व की।कठिन कर्म का क्षेत्र था वहाँ,पर यहाँ? कहो देवि, क्या यहाँ?उलहना कभी दैव को दिया,बहुत जो किया, नेंक रो लिया!सतत पुण्य या पाप-संगिनी,समझता रहा आत्मअंगिनी।स्वपति-पुण्य ही इष्ट था तुम्हें,कटु मुझे, तथा मिष्ट था तुम्हें?प्रियतमे, तपोभ्रष्ट मैं? भला!मत छुओ मुझे, लौट मैं चला।
</poem>
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