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मैं और बज़्मे-मै से / ग़ालिब

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|रचनाकार=ग़ालिब
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
मैं और बज़्मे-मै<ref>शराब की महफ़िल</ref> से यूं तश्नाकाम<ref>प्यासा</ref> आऊं!
गर मैंने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था?
है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़ें हैं
वो दिन गए कि अपने दिल से जिगर जुदा था
 ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता  ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता  तेरे वादे पर जिये हम दरमान्दगी<ref>दुख</ref> में 'ग़ालिब' कुछ बन पड़े तो ये जान झूठ जानाजानूं के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता  तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा जब रिश्ता बेगिरह था अह्द बोदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता  कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरनाख़ून गिरह-ए-नीमकश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता  ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता  रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता  ग़म अगर्चे जाँगुसिल है, पे कहाँ बचें के दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता  कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा कुशा<ref>गांठ खोलनेवाला</ref> था मरना अगर एक बार होता  हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता  उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यक्ता जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता  ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'!</poem>तुझे हम वली समझते, जो न बादा ख़्वार होता{{KKMeaning}}
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