[[कौतुहल / {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=संध्या पेडण॓कर]]पेडणेकर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}
<poem>
माँ ने बक्से में रखा था
वह बाहर झांकता झाँकता भी
तो माँ फुत्कारती
तब पलटी मार कर वह
मिची आँखों से रेंगते
अपने सहोदरों पर गिर पड़ता
यह लेकिन ज्यादा ज़्यादा समय
तक नहीं चल सका
एक दिन उसकी छलांग
माँ के पीछे उसे
बक्से से बाहर ले आयी आई
डर कर वह
खुद ख़ुद फुफकारा
शरीर उसका अकड़कर
धनुष -सा हो गया
कन्धों के दोनों छोर आपस में मिल गए
लेकिन धीरे धीरे उसे पता चला
अपनी बौखलाहट बौख़लाहट के अलावा
यहाँ सब कुछ सामान्य है
तो धीरे -धीरे
उसकी गोटी जैसी गोल आँखों में
कौतुहल कौतूहल जगा
शरीर की कमान ढीली पड़ी
कीलों की तरह खड़े हुए बाल
शरीर से फिर चिपक गए
उभरी पूँछ नीचे आयीआई
उसकी मोटाई भी कम हुई
आस -पास उसने जो देखा
उससे उसका दिल भर आया
पेट जमीन ज़मीन से टिका कर
वह धीमे से पसर गया
हलकी खड़क की भी उसके कान टोह लेते
और आँखें
लप -लप कर हर दृश्य को
दिल पर उकेर लेती
लटपट करते चारों पैरों से
जमीन ज़मीन पर जोर ज़ोर देकर
वह उठा
लटपट करती चाल से
दस कदम क़दम आगे बढ़ा
फिर अचानक डर के मारे
नन्ही -नन्ही कुदानें मारता
फिर बक्से की ओर लपका आया
अनजाना डर
पूँछ को व्यवस्थित लपेट कर
वह बैठ गया
विचार -मग्न सा
निर्णय नहीं हो पा रहा था
उत्तेजना के कारण अब उसे उससे झपकी आयी आई
बैठे बैठे वह झूलने लगा
तभी ............
तभी अचानक
गर्दन से पकड़कर उसे किसीने किसी ने उठाया हलकी गुर्राहट....
हवा में उछला
फिर वह बक्से में था