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चबूतरा / नीलेश रघुवंशी

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{{KKRachna
|रचनाकार=नीलेश रघुवंशी
|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
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चबूतरे पर बैठी औरतें करती हैं बातें
 
सिर-पैर नहीं कोई
 
अनंत तक फैली
 कभी न ख़्तम ख़त्म होने वाली 
भर देती हैं कभी गहरी उदासी
 और खीकझ खीझ से । 
निपटाकर कामकाज
 
बैठी हैं घेरकर चबूतरा
 
दमक रहे हैं सबके चेहरे
 
चेहरे पर किसी के कुछ ज़्यादा ही नमक
 
हाथ नहीं किसी के ख़ाली
 
भरे हैं फुर्सत से भरे कामों से ।
 
कहती है उनमें से एक
 
जन्मा है फ़लाँ ने बच्चा
 
बढ़ जाएगा क़द उसका एक इंच
 
मिलती हैं सब उसकी हीँ में हीँ
 होती हैं खुशख़ुश
निकलती है फिर नई बात ।
 
क्या जन्मने से बच्चा बढ़ता है क़द ?
 
क्यों नहीं बढ़ा फिर माँ का क़द ?
 
बताती है बहन
 
बढ़ता है क़द बेटा जन्मने से
 
जन्मी हैं माँ ने आठ बेटियाँ ।
 
बुझाकर बत्ती लेटते हैं हम बिस्तरे पर
 
गहरी उदासी और अनमने भाव से
 
सोचते हुए माँ के बारे में
 
खींचे उसके जीवन के अनन्य चित्र
 
भरे हम सबने पहली बार एक से रंग ।
 
हमारे सपनों को सँजोती
 
चिंता करती हमारे भविष्य की
 रहती है कैसी उतासउदास
बैठती नहीं कभी चबूतरे पर
 
फ़ुर्सत से भरे कामों को निपटाते
 
सोचती है वह हमारे घरों के बारे में ।
</poem>
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