भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ढाबा : आठ कविताएँ-3 / नीलेश रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलेश रघुवंशी |संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी }} कभी न...)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
 
|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita‎}}
 +
<poem>
 
कभी नहीं समझ पाए लोग
 
कभी नहीं समझ पाए लोग
 
 
हैरत करते ही रह गए
 
हैरत करते ही रह गए
 
 
देर रात तक ढाबे पर बैठने वाली लड़कियाँ करती हैं कैसे पढ़ाई
 
देर रात तक ढाबे पर बैठने वाली लड़कियाँ करती हैं कैसे पढ़ाई
 
  
 
रिज़ल्ट खुलता
 
रिज़ल्ट खुलता
 
 
अच्छे नंबरों को देख तारीफ़ करते पिता से
 
अच्छे नंबरों को देख तारीफ़ करते पिता से
 
  
 
पिता की आँखों में छिपा दर्द
 
पिता की आँखों में छिपा दर्द
 
 
हमेशा रहा उनकी आँखों से दूर
 
हमेशा रहा उनकी आँखों से दूर
 
 
माँ कभी नहीं समझा पाई हमें अपने रीति-रिवाज़।
 
माँ कभी नहीं समझा पाई हमें अपने रीति-रिवाज़।
 
  
 
वह दिन
 
वह दिन
 
 
लगाती हैं जब लड़कियाँ हाथों में मेहंदी
 
लगाती हैं जब लड़कियाँ हाथों में मेहंदी
 
 
हाथों में रहे हमारे राख़ से सने बर्तन
 
हाथों में रहे हमारे राख़ से सने बर्तन
 
 
मेहंदी का रंग और बर्तनों की कालिख दोनों रहे एकमेक
 
मेहंदी का रंग और बर्तनों की कालिख दोनों रहे एकमेक
 
 
सुबह से रात ढाबा ही रहा होली का रंग।
 
सुबह से रात ढाबा ही रहा होली का रंग।
 +
</poem>

13:09, 3 मार्च 2010 के समय का अवतरण

कभी नहीं समझ पाए लोग
हैरत करते ही रह गए
देर रात तक ढाबे पर बैठने वाली लड़कियाँ करती हैं कैसे पढ़ाई

रिज़ल्ट खुलता
अच्छे नंबरों को देख तारीफ़ करते पिता से

पिता की आँखों में छिपा दर्द
हमेशा रहा उनकी आँखों से दूर
माँ कभी नहीं समझा पाई हमें अपने रीति-रिवाज़।

वह दिन
लगाती हैं जब लड़कियाँ हाथों में मेहंदी
हाथों में रहे हमारे राख़ से सने बर्तन
मेहंदी का रंग और बर्तनों की कालिख दोनों रहे एकमेक
सुबह से रात ढाबा ही रहा होली का रंग।