भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"औरतों के नाम / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> कभी पूरी नींद तक भी न सोने व...)
 
(वर्तनी के सम्पादन/ ३-४ कविताएँ एक ही पन्ने पर थीं)
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
<poem>
 
<poem>
 
कभी पूरी नींद तक भी
 
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतों!
+
न सोने वाली औरतो !
 
मेरे पास आओ,
 
मेरे पास आओ,
 
दर्पण है मेरे पास  
 
दर्पण है मेरे पास  
 
जो दिखाता है
 
जो दिखाता है
 
कि अक्सर फिर भी
 
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आंखें
+
औरतों की आँखें
 
खूबसूरत होती क्यों हैं,
 
खूबसूरत होती क्यों हैं,
 
चीखों-चिल्लाहटों भरे
 
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुंह भी
+
बंद मुँह भी
कैसे मुसका लेते हैं इतना,
+
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,
  
और आप!
+
 
 +
और, आप !
 
जरा गौर से देखिए
 
जरा गौर से देखिए
 
सुराहीदार गर्दन के  
 
सुराहीदार गर्दन के  
पंक्ति 23: पंक्ति 24:
 
लाल से नीले
 
लाल से नीले
 
और नीले से हरे
 
और नीले से हरे
उंगलियों के निशान
+
उँगलियों के निशान
 
चुन्नियों में लिपटे
 
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढंके
+
बुर्कों से ढँके
आंचलों में सिमटे
+
आँचलों में सिमटे
नंगई संवारते हैं।  
+
नंगई सँवारते हैं।  
 +
 
  
 
टूटे पुलों के छोरों पर  
 
टूटे पुलों के छोरों पर  
 
तूफान पार करने की
 
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतों!
+
उम्मीद लगाई औरतों !
 
जमीन धसक रही है
 
जमीन धसक रही है
 
पहाड़ दरक गए हैं
 
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं-चौकियाँ
+
बह गई हैं   - चौकियाँ
 
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
 
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
 
जंगल
 
जंगल
पंक्ति 45: पंक्ति 47:
 
अभी भी बचा है
 
अभी भी बचा है
 
एक दर्पण
 
एक दर्पण
चमकीला।  
+
चमकीला।
 
+
क्रम
+
कितने दिन हो चुके
+
हवाएं
+
दौड़ रहीं
+
कितनी रातें
+
गईं
+
भोर-पर-भोर गईं
+
मिलता
+
कुछ भी नहीं
+
हथेली खाली है
+
होता
+
कुछ भी नहीं
+
काँपती
+
डाली है।
+
 
+
दिन
+
लोगों की जिंदगी में
+
सो गया है दिन,
+
अब वे
+
नए दिन की
+
पुरानी पड़ती थकानों से
+
झुँझलाए
+
हंस कर नहीं मिलते उससे।
+
 
+
उम्मीद से
+
साल-भर बाट जोहते हैं
+
नए साल की,
+
उनींदी रात को जगा
+
सिंगार करते हैं उसका
+
फिर छोड़ देते हैं
+
 
+
साल के पहले उजाले के
+
ऑंगन में
+
ले जा,
+
 
+
उजाला
+
अपने उजाले में फीकी पड़ी
+
उसकी चमक पर
+
रीझे भी तो
+
कैसे?
+

22:21, 5 मार्च 2010 का अवतरण

कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,


और, आप !
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।


टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतों !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
अंधेरे ने छीन ली है भले
ऑंखों की देख
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।