"औरतों के नाम / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर
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कभी पूरी नींद तक भी | कभी पूरी नींद तक भी | ||
− | न सोने वाली | + | न सोने वाली औरतो ! |
मेरे पास आओ, | मेरे पास आओ, | ||
दर्पण है मेरे पास | दर्पण है मेरे पास | ||
जो दिखाता है | जो दिखाता है | ||
कि अक्सर फिर भी | कि अक्सर फिर भी | ||
− | औरतों की | + | औरतों की आँखें |
खूबसूरत होती क्यों हैं, | खूबसूरत होती क्यों हैं, | ||
चीखों-चिल्लाहटों भरे | चीखों-चिल्लाहटों भरे | ||
− | बंद | + | बंद मुँह भी |
− | कैसे | + | कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना, |
− | और आप! | + | |
+ | और, आप ! | ||
जरा गौर से देखिए | जरा गौर से देखिए | ||
सुराहीदार गर्दन के | सुराहीदार गर्दन के | ||
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लाल से नीले | लाल से नीले | ||
और नीले से हरे | और नीले से हरे | ||
− | + | उँगलियों के निशान | |
चुन्नियों में लिपटे | चुन्नियों में लिपटे | ||
− | बुर्कों से | + | बुर्कों से ढँके |
− | + | आँचलों में सिमटे | |
− | नंगई | + | नंगई सँवारते हैं। |
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टूटे पुलों के छोरों पर | टूटे पुलों के छोरों पर | ||
तूफान पार करने की | तूफान पार करने की | ||
− | उम्मीद लगाई औरतों! | + | उम्मीद लगाई औरतों ! |
जमीन धसक रही है | जमीन धसक रही है | ||
पहाड़ दरक गए हैं | पहाड़ दरक गए हैं | ||
− | बह गई हैं-चौकियाँ | + | बह गई हैं - चौकियाँ |
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं | शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं | ||
जंगल | जंगल | ||
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अभी भी बचा है | अभी भी बचा है | ||
एक दर्पण | एक दर्पण | ||
− | चमकीला। | + | चमकीला। |
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22:21, 5 मार्च 2010 का अवतरण
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,
और, आप !
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।
टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतों !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
अंधेरे ने छीन ली है भले
ऑंखों की देख
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।