"कला क्या है / रघुवीर सहाय" के अवतरणों में अंतर
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− | अनुभव से समृद्ध होने की बात तुम मत करो | + | अपने कुएँ में से झाँक लिया करते हैं |
− | वह तो सिर्फ अद्वितीय जन ही हो सकते हैं | + | वह कुआँ जिसको हम लोग बुर्ज कहते हैं |
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− | अद्वितीय हर व्यक्ति जन्म से होता है | + | अद्वितीय हर व्यक्ति जन्म से होता है |
− | किन्तु जन्म के पीछे जीवन में जाने कितनों से यह | + | किन्तु जन्म के पीछे जीवन में जाने कितनों से यह |
− | अद्वितीय होने का अधिकार | + | अद्वितीय होने का अधिकार |
− | छीन लिया जाता है | + | छीन लिया जाता है |
− | और अद्वितीय फिर वे ही कहलाते हैं | + | और अद्वितीय फिर वे ही कहलाते हैं |
− | जो जन के जीवन से अनजाने रहने में ही | + | जो जन के जीवन से अनजाने रहने में ही |
− | रक्षित रहते हैं | + | रक्षित रहते हैं |
− | अद्वितीय हर एक है मनुष्य | + | अद्वितीय हर एक है मनुष्य |
− | और उसका अधिकार अद्वितीय होने का छीनकर जो खुद को अद्वितीय कहते हैं | + | और उसका अधिकार अद्वितीय होने का छीनकर जो खुद को अद्वितीय कहते हैं |
− | उनकी रचनाएँ हों या उनके हों विचार | + | उनकी रचनाएँ हों या उनके हों विचार |
− | पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर | + | पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर |
− | परसे जाते हैं तो उसे कला कहते हैं ! | + | परसे जाते हैं तो उसे कला कहते हैं ! |
− | कला और क्या है सिवाय इस देह मन आत्मा के | + | कला और क्या है सिवाय इस देह मन आत्मा के |
− | बाकी समाज है | + | बाकी समाज है |
− | जिसको हम जानकर समझकर | + | जिसको हम जानकर समझकर |
− | बताते हैं औरो को, वे हमें बताते हैं | + | बताते हैं औरो को, वे हमें बताते हैं |
− | वे, जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू | + | वे, जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू |
− | और सोने को जाते हैं | + | और सोने को जाते हैं |
− | क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें मार ड़ालना नहीं चाहती | + | क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें मार ड़ालना नहीं चाहती |
− | वे तीन तकलीफ़ों को जानकर | + | वे तीन तकलीफ़ों को जानकर |
− | उनका वर्णन नहीं करते हैं | + | उनका वर्णन नहीं करते हैं |
− | वही है कला उनकी | + | वही है कला उनकी |
− | कम से कम कला है वह | + | कम से कम कला है वह |
− | और दूसरी जो है बहुत सी कला है वह | + | और दूसरी जो है बहुत सी कला है वह |
− | कला बदल सकती है क्या समाज ? | + | कला बदल सकती है क्या समाज ? |
नहीं, जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा। | नहीं, जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा। | ||
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00:29, 8 मार्च 2010 के समय का अवतरण
कितना दुःख वह शरीर जज़्ब कर सकता है ?
वह शरीर जिसके भीतर खुद शरीर की टूटन हो
मन की कितनी कचोट कुण्ठा के अर्थ समझ उनके द्वारा अमीर होता जा सकता है ?
अनुभव से समृद्ध होने की बात तुम मत करो
वह तो सिर्फ अद्वितीय जन ही हो सकते हैं
अद्वितीय याने जो मस्ती में रहते हैं चार पहर
केवल कभी चौंककर
अपने कुएँ में से झाँक लिया करते हैं
वह कुआँ जिसको हम लोग बुर्ज कहते हैं
अद्वितीय हर व्यक्ति जन्म से होता है
किन्तु जन्म के पीछे जीवन में जाने कितनों से यह
अद्वितीय होने का अधिकार
छीन लिया जाता है
और अद्वितीय फिर वे ही कहलाते हैं
जो जन के जीवन से अनजाने रहने में ही
रक्षित रहते हैं
अद्वितीय हर एक है मनुष्य
और उसका अधिकार अद्वितीय होने का छीनकर जो खुद को अद्वितीय कहते हैं
उनकी रचनाएँ हों या उनके हों विचार
पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर
परसे जाते हैं तो उसे कला कहते हैं !
कला और क्या है सिवाय इस देह मन आत्मा के
बाकी समाज है
जिसको हम जानकर समझकर
बताते हैं औरो को, वे हमें बताते हैं
वे, जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू
और सोने को जाते हैं
क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें मार ड़ालना नहीं चाहती
वे तीन तकलीफ़ों को जानकर
उनका वर्णन नहीं करते हैं
वही है कला उनकी
कम से कम कला है वह
और दूसरी जो है बहुत सी कला है वह
कला बदल सकती है क्या समाज ?
नहीं, जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा।