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|रचनाकार=रघुवीर सहाय|संग्रह=लोग भूल गये हैं / रघुवीर सहाय
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<poem>
एक सभा हुई
उसमें आंदोलन के नेता बुलाये गये
पहले वे आ नहीं रहे थे
फिर आ गये क्योंकि मैं भी सभा के
पक्ष में था
सभा अन्त होने लगी तब बाजा बज उठा,
उसके बन्द होते ही मंच पर अँधेरा हुआ
और मंच पर बैठे लोगों के पीछे आकृतियाँ खड़ी हो गयीं
रोशनी पीछे थी आकृतियाँ काली थीं
उन्होंने नेताओं पर बन्दूकें तान दीं
नेता पीछे से घिर गये और आगे वे उठकर जाना चाहते थे
तो आगे जनता की भीड़ थी जिसके बारे में आयोजक मानते थे
कि वह नेताओं को घेरकर उनसे जवाब माँगेगी
और उन्हे भागने नहीं देगी
जैसे ही पिस्तौलें तनती हैं नेता असलियत समझ खड़े हो जाते हैं
जनता भी खड़ी हो जाती है मानो उन्हें भागने से रोकेगी
उसमें कई तरह के चेहरे हैं : मैं भी हूँ
विजय चौधरी से मैं कहता हूँ-तुम यह लो नेताओं पर तान दो
वह (मेरे हाथ में एक बन्दूक है) बैठा रह जाता है
मैं ही तुरन्त यह सोचकर कि मैं जो कर रहा हूँ इस वक्त
::::::::::वही सही है
रघुपति पर बन्दूक तान देता हूँ
रघुपति पूछते हैं : आप किस तरफ़ हैं
मैं बहुत अर्थ भरे स्वर में कहता हूँ आप ही की तरफ़
अर्थात मैं जो कर रहा हूँ देश के हित में
:::::::और आपके हित में कर रहा हूँ<
आप हमें स्वाकारें
रघुपति विस्मय में पड़कर मुझे एक क्षण देखते हैं
फिर अपनी निर्मल आँखें झुका सोच में डूब जाते हैं
न जाने कौन आदेश देता है कि बाहर चलें और नेताओं को
::::::::::वहाँ ले जाकर
उनसे बात करेंगे ( या उनको सज़ा देंगे? )
लाइन बनाकर लोग बढ़ते हैं
कई नौजवान नेता जब बाहर (पण्डाल या कमरा?) पहुँचते हैं
::::::::::तो उनके पीछे
बन्दूकधारी होते हैं न आगे जनता
वे लगभग आजाद हो जाते हैं
मैं सोचता हूँ कि ये भाग जायेंगे
तभी देखता हूँ कि भीड़भाड़ हो गयी और जो योजना थी कि
हममें से कोई नेताओं को बतायेगा कि उनकी ग़लतियाँ क्या थीं
और कहेगा कि जनता नेताओं से जवाबतलब करे,
:::::::::वह बिगड़ रही है
एक दरवाज़े से हरयाणा में दिखा कि लोग
::::::::निकलते दिखायी देते हैं
उन्हे योजना में दिलचस्पी नहीं है
उनसे कोई चिल्लाकर कहता है रुकिए
वे रुक नहीं रहे हैं
एक जुलूस रामलीला से निकला (बड़ी भारी पालकी)
किसी ने कहा : उसे रोककर उनको सब बातें समझा दो
तो ये जीवन में सुधार करेंगे
वह भी शोरगुल में होने से रह गया
मैं देखता हूँ कि मैंने क्या कर डाला
बन्दूक मेरे हाथ में अब नहीं है
पर जब ज़रा देर को थी तब की तसवीर दीख जाती है
और मैं ग्लानि से भर जाता हूँ
क्या जवाब दूँगा कि मैं तुम्हारी तरफ़ हूँ
मैंने बहुत सोचकर के कहा था (मेरा मतलब यह था कि मुझे भी
::आलोचना की ज़रूरत है) पर यह मैंने क्या कर डाला
एक सभा हुई<br>उसमें आंदोलन के नेता बुलाये गये<br>पहले वे आ नहीं रहे थे<br>फिर आ गये क्योंकि मैं भी सभा के<br>पक्ष में था<br><br>सभा अन्त होने लगी तब बाजा बज उठा,<br>उसके बन्द होते ही मंच पर अँधेरा हुआ<br>और मंच पर बैठे लोगों के पीछे आकृतियाँ खड़ी हो गयीं<br>रोशनी पीछे थी आकृतियाँ काली थीं<br>उन्होंने नेताओं पर बन्दूकें तान दीं<br>नेता पीछे से घिर गये और आगे वे उठकर जाना चाहते थे<br>तो आगे जनता की भीड़ थी जिसके बारे में आयोजक मानते थे<br>कि वह नेताओं को घेरकर उनसे जवाब माँगेगी<br>और उन्हे भागने नहीं देगी<br>जैसे ही पिस्तौलें तनती हैं नेता असलियत समझ खड़े हो जाते हैं<br>जनता भी खड़ी हो जाती है मानो उन्हें भागने से रोकेगी<br>उसमें कई तरह के चेहरे हैं : मैं भी हूँ<br>विजय चौधरी से मैं कहता हूँ-तुम यह लो नेताओं पर तान दो<br>वह (मेरे हाथ में एक बन्दूक है) बैठा रह जाता है<br>मैं ही तुरन्त यह सोचकर कि मैं जो कर रहा हूँ इस वक्त<br>::::::::::वही सही है<br><br>रघुपति पर बन्दूक तान देता हूँ<br>रघुपति पूछते हैं : आप किस तरफ़ हैं<br>मैं बहुत अर्थ भरे स्वर में कहता हूँ आप ही की तरफ़<br>अर्थात मैं जो कर रहा हूँ देश के हित में<br>:::::::और आपके हित में कर रहा हूँ<br>आप हमें स्वाकारें<br>रघुपति विस्मय में पड़कर मुझे एक क्षण देखते हैं<br>फिर अपनी निर्मल आँखें झुका सोच में डूब जाते हैं<br>न जाने कौन आदेश देता है कि बाहर चलें और नेताओं को<br>::::::::::वहाँ ले जाकर<br>उनसे बात करेंगे ( या उनको सज़ा देंगे? )<br>लाइन बनाकर लोग बढ़ते हैं<br>कई नौजवान नेता जब बाहर (पण्डाल या कमरा?) पहुँचते हैं<br>::::::::::तो उनके पीछे<br>बन्दूकधारी होते हैं न आगे जनता<br>वे लगभग आजाद हो जाते हैं<br><br>मैं सोचता हूँ कि ये भाग जायेंगे<br>तभी देखता हूँ कि भीड़भाड़ हो गयी और जो योजना थी कि<br>हममें से कोई नेताओं को बतायेगा कि उनकी ग़लतियाँ क्या थीं<br>और कहेगा कि जनता नेताओं से जवाबतलब करे,<br>:::::::::वह बिगड़ रही है<br><br>एक दरवाज़े से हरयाणा में दिखा कि लोग<br>::::::::निकलते दिखायी देते हैं<br>उन्हे योजना में दिलचस्पी नहीं है<br>उनसे कोई चिल्लाकर कहता है रुकिए<br>वे रुक नहीं रहे हैं<br><br>एक जुलूस रामलीला से निकला (बड़ी भारी पालकी)<br>किसी ने कहा : उसे रोककर उनको सब बातें समझा दो<br>तो ये जीवन में सुधार करेंगे<br>वह भी शोरगुल में होने से रह गया<br>मैं देखता हूँ कि मैंने क्या कर डाला<br>बन्दूक मेरे हाथ में अब नहीं है<br><br>पर जब ज़रा देर को थी तब की तसवीर दीख जाती है<br>और मैं ग्लानि से भर जाता हूँ<br>क्या जवाब दूँगा कि मैं तुम्हारी तरफ़ हूँ<br>मैंने बहुत सोचकर के कहा था (मेरा मतलब यह था कि मुझे भी<br>::आलोचना की ज़रूरत है) पर यह मैंने क्या कर डाला<br><br>यह भी दिखा था कि जनता संगठित होकर<br>::::::आलोचना नहीं कर पा रही है<br>और बन्दूक हाथ से चली गयी है<br>
मैं नहीं जानता कि रघुपति का क्या हुआ।
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