{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रघुवीर सहाय |संग्रह =कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ / रघुवीर सहाय
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
भाषा की ऊष्मा से फूटते नहीं है शब्द
भीगी पोटली म्रं में अब । कविता बनाकर मैं मोड़ कर रख देता रहा हूंहूँदो दिन में खोल कर पढ़ लेता रहा हूंहूँआड़े -तिरछे अंखुए अँखुए चिटख़ी दरारों में झांकते झाँकते मिले हैं ।
आज यह नहीं हुआ
सावधान !
क्या खड़ी बोली में अनजाना शब्द अब
नहीं रहा
जिसको परम्परा देती थी ?
('कुछ पते कुछ चिट्ठियां' नामक कविता-संग्रह से )</poem>