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|रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव
|संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / एकांत श्रीवास्तव
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<Poem>
उधर
जमीन ज़मीन फट रही है
और वह उग रहा है
चमक रही हैं नदी की ऑंखें
हिल रहे हैं पेड़ों के सिर
आहिस्ता-आहिस्ता
वह उग रहा है
वह खिलेगा
जल भरी ऑंखों आँखों के सरोवर में
रोशनी की फूल बनकर
वह चमकेगा
धरती के माथ पर
अखण्ड सुहाग की
टिकुली बनकर
वह
पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में
उग रहा है
उधर
आहिस्ता-आहिस्ता.आहिस्ता।</poem>