"अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | बरसों से कबीर के इंतजार में है | ||
+ | एक उदास चबूतरा | ||
+ | कि वे लौट आयेंगे किसी भी वक्त | ||
+ | और छील देंगे | ||
+ | एक उबले आलू की तरह | ||
+ | शहर का चेहरा | ||
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+ | जब फैल जाती है रात की चादर | ||
+ | नींद के धुएं में डूब जाते हैं पेड़ | ||
+ | फूल और पहाड़ | ||
+ | इसकी गहरी घाटियों में | ||
+ | गूंजती है सोन की पुकार | ||
+ | नर्मदा ओ..... | ||
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+ | और पहाड़ों के सीने में | ||
+ | ढुलकते हैं | ||
+ | नर्मदा के आंसू. | ||
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14:14, 1 मई 2010 का अवतरण
बरसों से
नर्मदा के जल में
एकटक देख रहा है अपना चेहरा
यह शहर
इसके सपने
विन्ध्याचल की नींद में
टहल रहे हैं
और यह स्वयं एक मीठे सपने की तरह
बसा है नर्मदा की जल भरी आंखों में
बरसों से जुड़े हैं
इस शहर के हाथ
और कांप रहे हैं होंठ 'नर्मदे हर'
यह
मन्दिर की चौखट पर बैठा है
बरसों से छोड़कर अपना घर
इसकी घाटियों से आ रही है
करौंदे, नीम
और मकोई के फूलों की गन्ध
झरने गीत हैं इस शहर के
जो गूंज रहे हैं
पत्थरों के उदास मन में
वसन्त में होता है यह शहर
एक बार फिर
वही बरसों पुराना 'आम्रकूट'
जिसकी पगडंडियों पर
छूटे हैं कालिदास के पांव के निशान
आज भी हैं
गुलबकावली के फूलों में
कालिदास के हाथों का स्पर्श
'कालिदास.....कालिदास.....'
पुकारते हैं सागौन के पत्ते
और 'मेघदूत' के
पन्नों की तरह फड़फड़ाते हैं
बरसों से यह शहर
कपिल के उठे हुए हाथ के नीचे
भीग रहा है
मीठे दूध की धार में
बरसों से
इसके मंदिरों की गुम्बदों पर
बैठें हैं कबूतर
ओ दुष्यन्त!
यहां हैं तुम्हारे कबूतर
चुगते चावल के दाने
पीते कुण्ड का जल
यह हाथ में
कमण्डल लिए खड़ा है
किसी भी वक्त
जंगल में गुम होने को तैयार
बरसों से कबीर के इंतजार में है
एक उदास चबूतरा
कि वे लौट आयेंगे किसी भी वक्त
और छील देंगे
एक उबले आलू की तरह
शहर का चेहरा
जब फैल जाती है रात की चादर
नींद के धुएं में डूब जाते हैं पेड़
फूल और पहाड़
इसकी गहरी घाटियों में
गूंजती है सोन की पुकार
नर्मदा ओ.....
नर्मदा ओ............
नर्मदा ओ................
और पहाड़ों के सीने में
ढुलकते हैं
नर्मदा के आंसू.
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