{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्या / सुमित्रानंदन पंत
}}
{{KKCatKavita}}
:वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
:गया जावानी जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
:महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
अह, आँखों में नाचा करती
:उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दावा दवा दर्पन के घरनी
:स्वरग चली,--आँखें आतीं भर,
देख रेख के बिना दुधमुँही
:लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल नें,
:डूब कुऍं कुँए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
:न सही एक, दूसरी आती,
:क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
:तीखी नोख नोक सदृश बन जाती।
मानव की चेतना न ममता
:रहती तब आँखों में उस क्षण!