{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=सुमित्रानंदन पंत]][[Category|संग्रह=ग्राम्या / सुमित्रानंदन पंत}}{{KKCatKavita}}<poem>फैली खेतों में दूर तलक :कविताएँ]]मख़मल की कोमल हरियाली, लिपटीं जिससे रवि की किरणें [[Category:सुमित्रानंदन पंत]]चाँदी की सी उजली जाली ! तिनकों के हरे हरे तन पर:हिल हरित रुधिर है रहा झलक,श्यामल भू तल पर झुका हुआ:नभ का चिर निर्मल नील फलक।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~रोमांचित-सी लगती वसुधा :आयी जौ गेहूँ में बाली,अरहर सनई की सोने की :किंकिणियाँ हैं शोभाशाली।उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध,:फूली सरसों पीली-पीली, लो, हरित धरा से झाँक रही :नीलम की कलि, तीसी नीली।
फैली खेतों रँग रँग के फूलों में दूर तलक<br>रिलमिल मख़मल की कोमल हरियाली:हँस रही संखिया मटर खड़ी।मख़मली पेटियों सी लटकीं :छीमियाँ,<br>छिपाए बीज लड़ी।लिपटीं जिस से रवि फिरती हैं रँग रँग की किरणें<br>तितलीचाँदी की-सी उजली जाली !<br><br>:रंग रंग के फूलों पर सुन्दर,फूले फिरते हों फूल स्वयं:उड़ उड़ वृंतों से वृंतों पर।
रोमाँचितअब रजत-सी लगती वसुधा<br>आयी जौ-गेहूँ में बाली<br>स्वर्ण मंजरियों से अरहर सनई :लद गईं आम्र तरु की सोने की<br>डाली।किंकिणियाँ हैं शोभाशाली<br>उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध<br>फूली सरसों पीली-पीलीझर रहे ढाँक,<br>लोपीपल के दल, हरित धरा से झाँक रही<br>नीलम की कलि:हो उठी कोकिला मतवाली।महके कटहल, तीसी नीलीमुकुलित जामुन,<br>रँग-रँग के फूलों :जंगल में रिलमिल<br>झरबेरी झूली।हँस रही संखिया मटर खड़ीफूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,<br>मख़मली पेटियों-सी लटकी<br>छीमियाँ:आलू, गोभी, बैंगन, छिपाये बीज लड़ी !<br><br>मूली।
पीले मीठे अमरूदों में :अब रजत-स्वर्ण मंजरियों लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं, पक गये सुनहले मधुर बेर, :अँवली से<br>लद गयी आम्र-तरु की डाली,<br>डाल जड़ीं।झर रहे ढाँकलहलह पालक, पीपल के दलमहमह धनिया,<br>हो उठी कोकिला मतवाली !<br>महके कटहल:लौकी औ' सेम फली, मुकुलित जामुनफैलीं,<br>जंगल में झरबेरी झूलीमख़मली टमाटर हुए लाल,<br>फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,<br>आलू, गोभी, बैगन, मूली !<br><br>:मिरचों की बड़ी हरी थैली।
पीले मीठे अमरूदों में<br>अब लाल-लाल चित्तियाँ पड़ीं<br>पक गये सुनहले मधुर बेर,<br>अँवली से तरु की डाल जड़ीं !<br>लहलह पालक,महमह धनिया,<br>लौकी औ' सेम फली,फैलीं !<br>मख़मली टमाटर हुए लाल,<br>मिरचों की बड़ी हरी थैली !<br>गंजी को मार गया पाला,<br>:अरहर के फूलों को झुलसा,<br>हाँका करती दिन-भर बन्दर<br>:अब मालिन की लड़की तुलसा !<br>तुलसा। बालाएँ गजरा काट-काट,<br>:कुछ कह गुपचुप हँसतीं किन-किन<br>, चाँदी की-सी घण्टियाँ घंटियाँ तरल<br>:बजती रहती रहतीं रह-रह खिन-खिन!<br><br>खिन।
बगिया छायातप के छोटे पेड़ों पर<br>हिलकोरों मेंसुन्दर लगते छोटे छाजन:चौड़ी हरीतिमा लहराती,<br>सुन्दर गेहूँ, की बालों ईखों के खेतों पर<br>सुफ़ेदमोती के दानों से हिमकन !<br>:काँसों की झंड़ी फहराती।ऊँची अरहर में लुका-छिपीप्रात: ओझल हो जाता जगखेलतीं युवतियाँ मदमाती,<br>भू पर आता ज्यों उतर गगन,<br>चुंबन पा प्रेमी युवकों केसुन्दर लगते फिर कुहरे :श्रम से<br>उठते-से खेत, बाग़, गॄह वन !<br><br>श्लथ जीवन बहलातीं।
लटके तरुओं बगिया के छोटे पेड़ों पर विहग नीड़<br>वनचर लड़कों को हुए ज्ञात:सुन्दर लगते छोटे छाजन,<br>रेखा-छवि विरल टहनियों सुंदर, गेहूँ की<br>बालों पर ठूँठे तरुओं :मोती के नग्न गात !<br>दानों-से हिमकन। आँगन में दौड़ रहे पत्तेप्रात: ओझल हो जाता जग,<br>धूमती भँवर-सी शिशिर-वात:भू पर आता ज्यों उतर गगन,<br>बदली छँटने पर लगती प्रिय<br>सुंदर लगते फिर कुहरे से ऋतुमती धरित्री सद्य:उठते-स्नात !<br><br>से खेत, बाग़, गृह, वन।
बालू के साँपों से अंकित:गंगा की सतरंगी रेतीसुंदर लगती सरपत छाई:तट पर तरबूज़ों की खेती।अँगुली की कंघी से बगुले:कलँगी सँवारते हैं कोई,तिरते जल में सुरख़ाब, पुलिन पर:मगरौठी रहती सोई। डुबकियाँ लगाते सामुद्रिक,:धोतीं पीली चोंचें धोबिन,उड़ अबालील, टिटहरी, बया,:चाहा चुगते कर्दम, कृमि, तृन।नीले नभ में पीलों के दल:आतप में धीरे मँडराते,रह रह काले, भूरे, सुफ़ेद:पंखों में रँग आते जाते। लटके तरुओं पर विहग नीड़ :वनचर लड़कों को हुए ज्ञात, रेखा-छवि विरल टहनियों की :ठूँठे तरुओं के नग्न गात।आँगन में दौड़ रहे पत्ते, :घूमती भँवर सी शिशिर वात। बदली छँटने पर लगती प्रिय :ऋतुमती धरित्री सद्य स्नात। हँसमुख हरियाली हिम-आतप<br>:सुख से अलसाए-से सोये,<br>भीगी अँधियाली में निशि की<br>:तारक स्वप्नों में-से-खोये,-<br>- मरकत डिब्बे-सा खुला ग्राम-<br>- :जिस पर नीलम नभ-आच्छादन,--<br>निरुपम हिमान्त में स्निग्ध-शान्त<br>शांत :निज शोभा से हरता न-मनज जन मन! रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०<br><br/poem>