भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मज़दूरनी के प्रति / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रान…)
 
छो ("मज़दूरनी के प्रति / सुमित्रानंदन पंत" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 18: पंक्ति 18:
 
कुल वधू सुलभ संरक्षणता से हो वंचित,
 
कुल वधू सुलभ संरक्षणता से हो वंचित,
 
निज बंधन खो, तुमने स्वतंत्रता की अर्जित।
 
निज बंधन खो, तुमने स्वतंत्रता की अर्जित।
स्त्री नहीं, आज मानवी बन गई तुम निश्चित,
+
स्त्री नहीं, बन गई आज मानवी तुम निश्चित,
 
जिसके प्रिय अंगो को छू अनिलातप पुलकित!
 
जिसके प्रिय अंगो को छू अनिलातप पुलकित!
  

16:30, 4 मई 2010 के समय का अवतरण

नारी की संज्ञा भुला, नरों के संग बैठ,
चिर जन्म सुहृद सी जन हृदयों में सहज पैठ,
जो बँटा रही तुम जग जीवन का काम काज
तुम प्रिय हो मुझे: न छूती तुमको काम लाज।

सर से आँचल खिसका है,--धूल भरा जूड़ा,--
अधखुला वक्ष,--ढोती तुम सिर पर धर कूड़ा;
हँसती, बतलाती सहोदरा सी जन जन से,
यौवन का स्वास्थ्य झलकता आतप सा तन से।

कुल वधू सुलभ संरक्षणता से हो वंचित,
निज बंधन खो, तुमने स्वतंत्रता की अर्जित।
स्त्री नहीं, बन गई आज मानवी तुम निश्चित,
जिसके प्रिय अंगो को छू अनिलातप पुलकित!

निज द्वन्द्व प्रतिष्ठा भूल जनों के बैठ साथ,
जो बँटा रही तुम काम काज में मधुर हाथ,
तुमने निज तन की तुच्छ कंचुकी को उतार
जग के हित खोल दिए नारी के हृदय द्वार!

रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०