भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नारी / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रान…)
 
पंक्ति 20: पंक्ति 20:
 
मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,
 
मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,
 
दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!
 
दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!
 +
 
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
 
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
 
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।
 
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।
पंक्ति 27: पंक्ति 28:
 
आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित
 
आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित
 
नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।
 
नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।
सामूहितक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,
+
सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,
 
नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।
 
नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।
  
 
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९
 
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९
 
</poem>
 
</poem>

16:33, 4 मई 2010 का अवतरण

हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,
वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!
युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,
वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!

सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,
पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;
अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,
वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!

वह समाज की नहीं इकाई,--शून्य समान अनिश्चित,
उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।
मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,
दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!

योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।
द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,
नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।

आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित
नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।
सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,
नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।

रचनाकाल: दिसंबर’ ३९