{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=कमलेश भट्ट 'कमल']][[Category:कमलेश भट्ट 'कमल']][[Category:कविताएँ]][[Category:गज़ल]]}} ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~{{KKCatGhazal}}<poem>
कुछ बहुत आसान, कुछ दुश्वार दिन
रोज़ लाता है नये नए किरदार दिन।
आज अख़बारों में कितना खूऩ है
कल सड़क पर था बहुत खूँख़्व़ार दिन।
पाप हो या जुल़्म हो हर एक की
हद का आता ही है आख़िरकार दिन।
रात ने निगला उसे हर शाम को
भोर में जन्मा मगर हर बार दिन।
दोस्ती है तो रहे वह उम्र भर
दुश्मनी हो तो चले दो-चार दिन।
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