Changes

<Poem>
गरदन झुकाए बरसों
दरवाजे दरवाज़े से निकलने
और दस्‍तक देने लगा
बहुत धुंधले धुँधले दिनों में
अपना नाम
किसी और का लगा
मैं जब कोई और लगा
जब खुद ख़ुद को
रोक कर अकेले में
मैंने पूछा-कौन हो यहांयहाँ!छुड़ाकर खुद ख़ुद से हाथ
अंधेरे में उतर गया
जिसमें एक ढहती हुई दीवार उठ रही थी
मैं तब कोई नहीं था अकेले में
छेद से रिसता हुआ
कहांकहाँ-कहां कहाँ रह गया जीवन!
जहॉं जहाँ कभी आया नहींमेरा जीवन इस तरह बिखरा हुआ सामान था.था।कि मैं अंतिम कुली हूंहूँऔर उसे छोड़कर जा रहा हूं.हूँ।</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,440
edits