"कौन कहता है / अहमद नदीम क़ासमी" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ | ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ | ||
− | कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा | + | कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा |
− | मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा | + | मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा |
− | तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा | + | तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा |
− | घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा | + | घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा |
− | तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है | + | तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है |
− | सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा | + | सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा |
− | अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह | + | अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह |
− | साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा | + | साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा |
− | तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना | + | तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना |
− | वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा | + | वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा |
− | चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं | + | चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं |
− | ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा | + | ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा |
− | अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं | + | अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं |
− | अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा | + | अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा |
− | ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’ | + | ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’ |
− | बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा | + | बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा |
21:30, 8 मार्च 2007 का अवतरण
रचनाकार: अहमद नदीम काज़मी
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा
तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा
अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा
तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा
अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा
ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’ बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा