"एक बहती नदी / अशोक तिवारी" के अवतरणों में अंतर
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पुरातन चश्मे से | पुरातन चश्मे से | ||
और मुझे अपने ही घर के कोने | और मुझे अपने ही घर के कोने | ||
− | + | मुँह चिढ़ाते हैं | |
कराने लगते हैं अजनबीपन का अहसास | कराने लगते हैं अजनबीपन का अहसास | ||
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एक सवाल की तरह घेरती है मुझे | एक सवाल की तरह घेरती है मुझे | ||
− | हवा में फैले गहरे काले | + | हवा में फैले गहरे काले धुएँ की घुटन |
− | मौजूद रही है तुम्हारी | + | मौजूद रही है तुम्हारी धड़कनों में |
जिसने बना दिया है तुम्हें | जिसने बना दिया है तुम्हें | ||
कहीं ज़्यादा गहरा और शांत | कहीं ज़्यादा गहरा और शांत | ||
समाज की जकड़बंदी | समाज की जकड़बंदी | ||
− | बहती रही है तुम्हारी | + | बहती रही है तुम्हारी साँसों में |
सालों-साल | सालों-साल | ||
सामाजिक बंधनों को तो | सामाजिक बंधनों को तो | ||
मैं भी मानती हूँ माँ | मैं भी मानती हूँ माँ | ||
− | + | माँ-बेटी के रिश्ते की महक | |
− | हमसे अधिक और कौन | + | हमसे अधिक और कौन सूँघ सकता है |
हम दोनों के दिल भले ही हों अलग | हम दोनों के दिल भले ही हों अलग | ||
धड़कते रहे हैं मगर एक साथ | धड़कते रहे हैं मगर एक साथ | ||
− | हमारी | + | हमारी साँसों की गरमाहट |
रही है हमेशा एक सी | रही है हमेशा एक सी | ||
एक ही आवृत्ति के साथ | एक ही आवृत्ति के साथ | ||
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देखने लगती हैं तुम्हारी निगाहें | देखने लगती हैं तुम्हारी निगाहें | ||
और मैं डर जाती हूँ | और मैं डर जाती हूँ | ||
− | तुम्हारी पहाड़ सी आकांक्षाओं के सामने | + | तुम्हारी पहाड़-सी आकांक्षाओं के सामने |
तुम्हारे अंदर घुमड़ते सवालों को | तुम्हारे अंदर घुमड़ते सवालों को | ||
जब में पढ़ती हूँ | जब में पढ़ती हूँ | ||
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तुम्हारे हिसाब से | तुम्हारे हिसाब से | ||
ढोती है बच्चों का बोझ | ढोती है बच्चों का बोझ | ||
− | मेरे लिए साथी | + | मेरे लिए साथी ढूँढ़ने की तुम्हारी मुहिम |
तुम्हें तोड़ रही है कहीं गहरे में | तुम्हें तोड़ रही है कहीं गहरे में | ||
− | मगर मैं क्या | + | मगर मैं क्या करूँ माँ |
नए-नए रिश्तों की बुनावट | नए-नए रिश्तों की बुनावट | ||
की कल्पना से ही सिहर जाती हूँ मैं | की कल्पना से ही सिहर जाती हूँ मैं | ||
− | + | जहाँ मैं अपने होने न होने में | |
नहीं कर पाती हूँ फ़र्क | नहीं कर पाती हूँ फ़र्क | ||
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मैं तो बिलकुल नहीं | मैं तो बिलकुल नहीं | ||
हरगिज़ नहीं........!! | हरगिज़ नहीं........!! | ||
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+ | रचनाकाल : 12 मई, 2010 | ||
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06:39, 20 मई 2010 के समय का अवतरण
घर के कोने कोने के साथ मेरा रिश्ता
उतना ही गहरा रहा है माँ
जितना एक बेटी का होना चाहिए
हवा में पानी और
पानी में हवा की तरह
बचपन में खेले गए छुप्पन-छिपाई में
दीवारों की ओट
बहुत बड़ा सहारा थी मेरे लिए
वही दीवारें
नागफनी की बाड़ की तरह
छाने लगती हैं मेरे चारों ओर मेरी माँ
जब तुम्हारे बदन पर चिपकी हज़ारों आँखें
मुझे तोलती हुई
मेरे अंदर की औरत को
देखने की कोशिश करती हैं
पुरातन चश्मे से
और मुझे अपने ही घर के कोने
मुँह चिढ़ाते हैं
कराने लगते हैं अजनबीपन का अहसास
औरत की रचनात्मकता
एक सवाल की तरह घेरती है मुझे
हवा में फैले गहरे काले धुएँ की घुटन
मौजूद रही है तुम्हारी धड़कनों में
जिसने बना दिया है तुम्हें
कहीं ज़्यादा गहरा और शांत
समाज की जकड़बंदी
बहती रही है तुम्हारी साँसों में
सालों-साल
सामाजिक बंधनों को तो
मैं भी मानती हूँ माँ
माँ-बेटी के रिश्ते की महक
हमसे अधिक और कौन सूँघ सकता है
हम दोनों के दिल भले ही हों अलग
धड़कते रहे हैं मगर एक साथ
हमारी साँसों की गरमाहट
रही है हमेशा एक सी
एक ही आवृत्ति के साथ
स्पंदित होते रहे हैं हमारे सुर
फिर माँ
तुम्हारा अकेले में मुझे देखना
क्यों कर देता है मुझे विचलित
क्यों मेरी छातियों की ओर
देखने लगती हैं तुम्हारी निगाहें
और मैं डर जाती हूँ
तुम्हारी पहाड़-सी आकांक्षाओं के सामने
तुम्हारे अंदर घुमड़ते सवालों को
जब में पढ़ती हूँ
मुझे लगता है
मेरा अधूरापन
छा रहा है तुम्हारे अंदर
और मैं होती जा रही हूँ
तुम्हारे सत्व से सराबोर
उम्र के इस पड़ाव में
जब मेरी उम्र
तुम्हारे हिसाब से
ढोती है बच्चों का बोझ
मेरे लिए साथी ढूँढ़ने की तुम्हारी मुहिम
तुम्हें तोड़ रही है कहीं गहरे में
मगर मैं क्या करूँ माँ
नए-नए रिश्तों की बुनावट
की कल्पना से ही सिहर जाती हूँ मैं
जहाँ मैं अपने होने न होने में
नहीं कर पाती हूँ फ़र्क
मुझे मालूम है
मैं 'अपने' ही घर में
हूँ चिंता का सबब
मेरे छोटे नहीं,
बड़े नहीं,
मैं हूँ .......
जो तारीख़ बदलने की बात करती हूँ
मगर बदल नहीं पाती
अपने घर के ही कुछ उसूलों को
ज़िंदगी का ठहराव ऐसे में
मेरे मन में करता है बेचैनी पैदा
जब में देखती हूँ
तुम्हारे अंदर सुलगते कोयलों को
धधक रहे हैं जो तुम्हारे कलेजे में
सुसुप्त ज्वालामुखी की तरह
तुम्हें खा रही है कोई अनजानी चिंता
धीरे-धीरे
और तुम बहाना लेकर
छेड़ देती हो ऐसा ही कोई राग
घोल देता है जो मौसम में कडुवाहट
नदी बनकर
और धाराओं के साथ बहना और जीना
मैंने तुमसे ही सीखा है
नदी होकर
एक नदी से अपनी स्वच्छंदता
क्यों छीनना चाहती हो माँ
भीड़ में खोना नहीं चाहती मैं
क्योंकि भीड़ में खोना
डुबो देना है अपने आपको
ठहरे हुए पानी में
एक नदी की आत्महत्या
कर पाओगी तुम बरदाश्त?
मैं तो बिलकुल नहीं
हरगिज़ नहीं........!!
रचनाकाल : 12 मई, 2010