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मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"
 
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मुझको न कभी ये जायँ भूल
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हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,
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बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,
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कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,
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विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन
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विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-
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वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,
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मिलते आहत होकर जलकन,
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लहरों का यह परिणत जीवन,
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दो लौट चले पुर ओर मौन,
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जब दूर हुए तब रहे दो न।
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निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,
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वह था असीम का चित्र कांत।
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कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,
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व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,
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झलके कब से पर पडे न झर,
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गंभी मलिन छाया भू पर,
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सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,
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केवल बिखेरता दीन ध्वांत।
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15:09, 26 मार्च 2007 का अवतरण

लेखक: जयशंकर प्रसाद

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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन,

वरदान बने मेरा जीवन

जो मुझको तू यों चली छोड,

तो मुझे मिले फिर यही क्रोड"


"हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,

हर लेगा तेरा व्यथा-भार,

यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,

तू मननशील कर कर्म अभय,


इसका तू सब संताप निचय,

हर ले, हो मानव भाग्य उदय,

सब की समरसता कर प्रचार,

मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"


"अति मधुर वचन विश्वास मूल,

मुझको न कभी ये जायँ भूल

हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,

बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,


आकर्षण घन-सा वितरे जल,

निर्वासित हों संताप सकल"

कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,

पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।


वे तीनों ही क्षण एक मौन-

विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन

विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-

वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,


मिलते आहत होकर जलकन,

लहरों का यह परिणत जीवन,

दो लौट चले पुर ओर मौन,

जब दूर हुए तब रहे दो न।


निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,

वह था असीम का चित्र कांत।

कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,

व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,


झलके कब से पर पडे न झर,

गंभी मलिन छाया भू पर,

सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,

केवल बिखेरता दीन ध्वांत।







'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''