"आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं /ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं | आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं |
16:14, 1 जून 2010 के समय का अवतरण
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गिरेबां नंगे-पैराहन<ref>वस्त्रों को लज्जाने वाला</ref> जो दामन में नहीं
ज़ोफ़<ref>दौर्बल्य,दुर्बलता,क्षीणता</ref>से ऐ गिरियां<ref>रुदन</ref>, कुछ बाक़ी मेरे तन में नहीं
रंग हो कर उड़ गया, जो ख़ूं कि दामन में नहीं
हो गए हैं जमअ़<ref>इकठ्ठे</ref> अज्ज़ा<ref>टुकड़े,खण्ड</ref>-ए-निगाहे-आफ़ताब<ref>सूर्य-दृष्टि</ref>
ज़र्रे उसके घर की दीवारों के रौज़न<ref>रोशनदान</ref>में नहीं
क्या कहूँ तारीक़ी-ए-ज़िन्दाने-ए-ग़म<ref>शोक के कारागार का अँधेरा</ref> अन्धेर है
पम्बा<ref>रूई का फाहा</ref> नूरे-सुबह से कम जिसके रौज़न में नहीं
रौनक़े-हस्ती है इश्क़े-ख़ाना-वीरां-साज़<ref>घर की तबाही</ref> से
अंजुमन बे-शम्अ़ है, गर बर्क़<ref>बिजली</ref> ख़िरमन<ref>खलिहान</ref> में नहीं
ज़ख्म सिलवाने से मुझ पर चाराजोई<ref>उपचार</ref> का है ताअ़न<ref>व्यंग्य</ref>
ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्मे-सोज़न<ref>सूई का ज़ख्म</ref> में नहीं
बस कि हैं हम इक बहारे-नाज़ के मारे हुए
जल्वा-ए-गुल के सिवा गर्द अपने मदफ़न<ref>क़ब्र,समाधी</ref> में नहीं
क़तरा-क़तरा इक हयूला है, नए नासूर का
ख़ूँ भी ज़ौक़े-दर्द<ref>पीड़ा की रुचि</ref> से फ़ारिग़<ref>स्वतन्त्र</ref> मेरे तन में नहीं
ले गई साक़ी की नख़्वत<ref>घमण्ड</ref> कुल्ज़ुम-आशामी<ref>समुन्दर को पी जाना</ref> मेरी
मौजे-मय की आज रग<ref>नस</ref> मीना<ref>मय पात्र</ref> की गर्दन में नहीं
हो फ़िशारे-ज़ोफ़<ref>वृद्धावस्था</ref> में क्या नातवानी<ref>निर्बलता</ref> की नुमूद<ref>आभास</ref>
क़द के झुकने की भी गुंजाइश मेरे तन में नहीं
थी वतन में शान क्या ग़ालिब, कि हो ग़ुरबत<ref>परदेस</ref> में क़द्र
बे-तक़ल्लुफ़<ref>अनौपचारिक</ref> हूँ वो मुश्ते-ख़स<ref>मुठ्ठी भर घास</ref> कि गुलख़न<ref>भठ्ठी</ref> में नहीं