भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गुलों की तरह हमने जिंदगी को इस कदर जाना / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र |संग्रह=आस / बशीर बद्र }} {{KKCatGhazal}} <poem> गुलों…)
 
(कोई अंतर नहीं)

08:55, 16 जून 2010 के समय का अवतरण

गुलों की तरह हमने ज़िन्दगी को इस क़दर जाना
किसी की ज़ुल्फ़ में एक रात सोना और बिखर जाना

अगर ऐसे गये तो ज़िन्दगी पर हर्फ़ आयेगा
हवाओं से लिपटना, तितलियों को चूम कर जाना

धुनक के रखा दिया था बादलों को जिन परिन्दों ने
उन्हें किस ने सिखाया अपने साये से भी डर जाना

कहाँ तक ये दिया बीमार कमरे की फ़िज़ा बदले
कभी तुम एक मुट्ठी धूप इन ताक़ों में भर जाना

इसी में आफ़िअत है घर में अपने चैन से बैठो
किसी की सिम्त जाना हो तो रस्ते में उतर जाना