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Kavita Kosh से
थके अनमने से
बैठे सहमे।
मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !
बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।