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कवि: [[कुमार रवींद्र]][[Category:कविताएँ]]{{KKGlobal}}[[Category:गीत]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार= कुमार रवींद्र]]}}~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~{{KKCatNavgeet}}<poem>और नपुंसक हुई हवाएंहवाएँ
चलती हैं, बदलाव नहीं लातीं।
अंधे गलियारों में फिरतीं
खूब गूंजती गूँजती हैं,
किसी अपाहिज हुए देव को
वहीं पूजती हैं,
बाज़ नहीं आते राजा
झुनझुना बजाने से,
 नाजुक कलियांकलियाँ
महलसरा में हैं कुचली जातीं।
झंडा पुरखों के देवालय का है
रात फुंका,
 
राख उसी की
बस्ती भर में अब ये बरसातीं।
</poem>
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