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"और नपुंसक हुई हवाएं / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर

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और नपुंसक हुई हवाएँ
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वहीं पूजती हैं,
 
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बाज़ नहीं आते राजा
 
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नाजुक कलियाँ
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बस्ती भर में अब ये बरसातीं।
 
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11:59, 2 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

और नपुंसक हुई हवाएँ
चलती हैं, बदलाव नहीं लातीं।

अंधे गलियारों में फिरतीं
खूब गूँजती हैं,
किसी अपाहिज हुए देव को
वहीं पूजती हैं,
पगडंडी पर
राजमहल के मंत्र बावरे अब भी ये गातीं।

फ़र्क नहीं पड़ता है कोई
इनके आने से,
बाज़ नहीं आते राजा
झुनझुना बजाने से,
नाजुक कलियाँ
महलसरा में हैं कुचली जातीं।

जंगली और हवाओं का
रिश्ता भी टूट चुका,
झंडा पुरखों के देवालय का है
रात फुंका,
राख उसी की
बस्ती भर में अब ये बरसातीं।