"चक्रवात / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | (उड़ीसा के विध्वंसक चक्रवात के सन्दर्भ में) | ||
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+ | जब शाम | ||
+ | मनहूस जम्हाइयां लेती | ||
+ | उबासियाँ भर-भर | ||
+ | विकृत चेहरा बनाती | ||
+ | रात के आगोश में | ||
+ | लपक रही थी | ||
+ | और एक अनहोनी के | ||
+ | पूर्वाभास से | ||
+ | खिन्न-मन रात | ||
+ | पहन मातामी लिबास | ||
+ | सुबकती-सिसकती | ||
+ | खेत-खलिहानों | ||
+ | नदी-नहर-नालों | ||
+ | झुग्गी-झोपड़पट्टियों | ||
+ | ऊसर से उर्वर मिट्टियों | ||
+ | तक सहमी-सहमी | ||
+ | वहमी-वहमी | ||
+ | पसर रही थी | ||
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+ | तब एक खूनी ख़याल की भाँति | ||
+ | वायुमार्गी महामायावी चक्रवात | ||
+ | अपने दल-बल लिए साथ | ||
+ | उतरा था वहां | ||
+ | घुसपैठे की तरह | ||
+ | |||
+ | बेजुबान बस्तियां, बेसुध बागान | ||
+ | नादाँ नदियां, मूक मैदान | ||
+ | जर्जर जंगल, आहत आसमान | ||
+ | पल में पलक झपकते | ||
+ | उस परामानव के | ||
+ | उदरस्थ थे | ||
+ | और उसके मलमूत में परिणत हो | ||
+ | अपने मौलिक स्वरुप से | ||
+ | अपदस्थ थे | ||
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+ | अगले ही क्षण | ||
+ | आकुल आत्माओं के असंख्य कण | ||
+ | गुत्थमगुत्थ उमड़े थे | ||
+ | यम-द्वार पर दस्तक दे रहे थे | ||
+ | जहां विजयोंमत्त बैठा चक्रवात | ||
+ | कर रहा था कुटिल अट्टहास | ||
+ | उसने यमराज को मात दी थी | ||
+ | यानी नियतकाल से पूर्व देह-त्याग | ||
+ | जीवात्माएं कूच कर चली थीं, | ||
+ | यमराज तो हैरान थे | ||
+ | विस्मयपूर्ण लज्जा से शर्मसार थे | ||
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+ | न महायुद्ध छिड़ा था | ||
+ | न आइसोसाइनेट@ का बवंडर उमड़ा था | ||
+ | न सूरत का प्लेग फैला था | ||
+ | न ड्राप्सी का ज़हर तेल में घुला था | ||
+ | न जलजला, न ज्वालामुखी | ||
+ | न ही सागरीय ज्वार | ||
+ | लील गया था किसी दुधमुंहे क्राकाटोआ% को | ||
+ | विरले ही इतिहास ने भी | ||
+ | इस तरह दोहराया था | ||
+ | खुद को कभी-कभी | ||
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+ | उस परामानव ने | ||
+ | अपनी दुर्दांत दुलात्तियों से | ||
+ | गेंद-सा उछाल दिया था | ||
+ | सभी जीवों-अजीवों को एकसाथ | ||
+ | पछाड़ खाकर | ||
+ | टपक-टपक कर | ||
+ | गिरे देवदारुओं की | ||
+ | बेजान बांहों से लटकते कंकाल | ||
+ | मांस-मज्जा से सने बाल | ||
+ | महाकाल के क्रूर प्रहार के | ||
+ | जीते-जागते दस्तावेज़ हैं | ||
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+ | सृजनहार भी चकित रह गया था | ||
+ | यह महादेशीय मानस | ||
+ | स्तब्ध रह गया था | ||
+ | क्योंकि वह दैत्य बता गया था-- | ||
+ | 'हां, मैं ही हूँ | ||
+ | इस लम्पट लोकतंत्र की | ||
+ | मंशा का साकार रूप' | ||
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+ | भू-दृश्य के ओर-छोर तक | ||
+ | उस अविराम कब्रगाह पर | ||
+ | थोक मौत का जश्न आयोजित था, | ||
+ | देहें मिट्टी में मिलकर | ||
+ | चरितार्थ कर रही थीं | ||
+ | एक सार्वभौमिक कहावत | ||
+ | बतला रही थीं | ||
+ | इतराते भौतिकवाद का | ||
+ | अनिर्वचनीय हश्र | ||
+ | |||
+ | तमाम अहं से उबार चुकीं | ||
+ | सस्ती से सस्ती हो चुकीं | ||
+ | लावारिस अनाथ लाशें | ||
+ | रिवाजों और कर्मकांडों के बिना ही | ||
+ | या टो खुद कब्रों में समा चुकी थीं | ||
+ | या बेतरतीब चिताओं पर चढ़ चुकी थीं | ||
+ | |||
+ | वहां न खून था | ||
+ | न पानी, न मिट्टी | ||
+ | न राख, न धूल | ||
+ | चट्टानों से चिपके शव | ||
+ | शवों में चुभे बेरहम नोकदार पत्थर | ||
+ | कीचड़ में घुलता-मिलता रुधिर | ||
+ | सभी अपने अलग-अलग होने का | ||
+ | भ्रम पैदा कर रहे थे | ||
+ | सभी एकाकार हो रहे थे | ||
+ | अद्वैत और महासत्य | ||
+ | बनाते जा रहे थे. | ||
+ | |||
+ | @ भोपाल गैस त्रासदी में यही विषैली और घातक गैस फैली थी. | ||
+ | % एक ज्वालामुखी विस्फोट में यह द्वीप जलमग्न हो गया था. |
11:47, 9 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
चक्रवात
चक्रवात
(उड़ीसा के विध्वंसक चक्रवात के सन्दर्भ में)
जब शाम
मनहूस जम्हाइयां लेती
उबासियाँ भर-भर
विकृत चेहरा बनाती
रात के आगोश में
लपक रही थी
और एक अनहोनी के
पूर्वाभास से
खिन्न-मन रात
पहन मातामी लिबास
सुबकती-सिसकती
खेत-खलिहानों
नदी-नहर-नालों
झुग्गी-झोपड़पट्टियों
ऊसर से उर्वर मिट्टियों
तक सहमी-सहमी
वहमी-वहमी
पसर रही थी
तब एक खूनी ख़याल की भाँति
वायुमार्गी महामायावी चक्रवात
अपने दल-बल लिए साथ
उतरा था वहां
घुसपैठे की तरह
बेजुबान बस्तियां, बेसुध बागान
नादाँ नदियां, मूक मैदान
जर्जर जंगल, आहत आसमान
पल में पलक झपकते
उस परामानव के
उदरस्थ थे
और उसके मलमूत में परिणत हो
अपने मौलिक स्वरुप से
अपदस्थ थे
अगले ही क्षण
आकुल आत्माओं के असंख्य कण
गुत्थमगुत्थ उमड़े थे
यम-द्वार पर दस्तक दे रहे थे
जहां विजयोंमत्त बैठा चक्रवात
कर रहा था कुटिल अट्टहास
उसने यमराज को मात दी थी
यानी नियतकाल से पूर्व देह-त्याग
जीवात्माएं कूच कर चली थीं,
यमराज तो हैरान थे
विस्मयपूर्ण लज्जा से शर्मसार थे
न महायुद्ध छिड़ा था
न आइसोसाइनेट@ का बवंडर उमड़ा था
न सूरत का प्लेग फैला था
न ड्राप्सी का ज़हर तेल में घुला था
न जलजला, न ज्वालामुखी
न ही सागरीय ज्वार
लील गया था किसी दुधमुंहे क्राकाटोआ% को
विरले ही इतिहास ने भी
इस तरह दोहराया था
खुद को कभी-कभी
उस परामानव ने
अपनी दुर्दांत दुलात्तियों से
गेंद-सा उछाल दिया था
सभी जीवों-अजीवों को एकसाथ
पछाड़ खाकर
टपक-टपक कर
गिरे देवदारुओं की
बेजान बांहों से लटकते कंकाल
मांस-मज्जा से सने बाल
महाकाल के क्रूर प्रहार के
जीते-जागते दस्तावेज़ हैं
सृजनहार भी चकित रह गया था
यह महादेशीय मानस
स्तब्ध रह गया था
क्योंकि वह दैत्य बता गया था--
'हां, मैं ही हूँ
इस लम्पट लोकतंत्र की
मंशा का साकार रूप'
भू-दृश्य के ओर-छोर तक
उस अविराम कब्रगाह पर
थोक मौत का जश्न आयोजित था,
देहें मिट्टी में मिलकर
चरितार्थ कर रही थीं
एक सार्वभौमिक कहावत
बतला रही थीं
इतराते भौतिकवाद का
अनिर्वचनीय हश्र
तमाम अहं से उबार चुकीं
सस्ती से सस्ती हो चुकीं
लावारिस अनाथ लाशें
रिवाजों और कर्मकांडों के बिना ही
या टो खुद कब्रों में समा चुकी थीं
या बेतरतीब चिताओं पर चढ़ चुकी थीं
वहां न खून था
न पानी, न मिट्टी
न राख, न धूल
चट्टानों से चिपके शव
शवों में चुभे बेरहम नोकदार पत्थर
कीचड़ में घुलता-मिलता रुधिर
सभी अपने अलग-अलग होने का
भ्रम पैदा कर रहे थे
सभी एकाकार हो रहे थे
अद्वैत और महासत्य
बनाते जा रहे थे.
@ भोपाल गैस त्रासदी में यही विषैली और घातक गैस फैली थी.
% एक ज्वालामुखी विस्फोट में यह द्वीप जलमग्न हो गया था.