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विचराया, आहों के सागर-तट पर | विचराया, आहों के सागर-तट पर | ||
12:35, 16 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
कृतज्ञ
परोसा भूखे तन की थाली में
स्नेह का सतरंगा व्यंजन,
उड़ेला प्यासे मन की प्याली में
जीवन-संगीत का गुंजन
.....
झुलाया, अलमस्त सांसों की डोर पर
नचाया, धड़कते दिल की मृदंगी थाप पर
विचराया, आहों के सागर-तट पर
झनकाया, आंखों की सूनी नाली में
यादों का झन-झन
.....
भरमाया, मुस्कान से खिंचती लकीरों में
भटकाया, भौंहों के रोप-वे पर
बौराया, मंदिर निगाहों के रसपान से
बरसाया, पथराई-मुरझाई हथेली में
चुंबन-सुख-रंजन
.....
सुलाया, नैनों में बसा, पलकों की थपकी से
नहलाया, कपोल पर बैठा, त्वचीय धूप से
सहलाया, होठ-शैय्या पर सुला, जिह्वा से
लगाया, धूमिल जीवन-रेखा में
नैनों का अंजन.
.....