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Kavita Kosh से
पतंग जूझती हैं
हवाई थपेडों थपेड़ों से,
हमारी खुशियों की
गठरी लादे हुए
किसी गुप्त भाषा में
और हमारी दीवानगी की
खूब उडाती उड़ाती है खिल्लियां,
गुरूर-गुमान से
घुमाती हुई अपना सिर
लुभाती-ललचाती है,
मचल-मचल,
छपाक-छपाक उछल
सुदूर नभीय झील में
कि आओ!
अथक उडोउड़ो
और छा जाओ,
छू लो हमें स्वच्छन्द
क्षितिजीय सीमाओं से
हम आंखें फोड फोड़ लेते हैं
उन्हें एकटक
देखते-देखते
दादुरी झुण्ड,
जैसे जम्हाती संध्या में
झींगुरों की झन-झन
नहीं उतरती है खरी
हमारी डुबडुबाती
भावनाओं पर,
खूब लडतीलड़ती-झगडती झगड़ती है
अपनी दुश्मन पतंगों से,
छल-युद्ध करके
कभी मैदान छोडछोड़
भागने का बहाना बना करके
फिर, वापस टूट पडती पड़ती है
अपने प्रतिद्वन्द्वी पर।
(रचना काल: फ़रवरी, १९९९)