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"महानगर में सवेरा / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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कि चिमनियों-कार्ब्यूरेटरों से  
 
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कूच कर चली  
 
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धुओं की सशस्त्र सेनाएं  
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गोरिल्ला रणनीति से  
 
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शामिल हो जाती हैं  
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सृष्टि के विरुद्ध  
 
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एक परिणामी युद्ध में  
 
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तभी, आहत आसमान की
 
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बांहों में सिसकते  
 
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ज्वारातंकित पूर्वी क्षितिज से  
 
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उग आता है  
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टींसते फोड़े जैसा सूरज   
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टींसते फोड़े जैसा सूरज,  
 
जिसकी किरणें  
 
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गाढ़े मवाद की तरह  
 
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और बहने लगती हैं  
 
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रोगाणुओं-कीटाणुओं से दबी
 
रोगाणुओं-कीटाणुओं से दबी
और मृत्यु-भय से हदसी
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और मृत्यु-भय से हदसी  
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जमुना की रुग्ण शिराओं में
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और ज़हरीले मवाद से
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मरणासन्न कर देती हैं
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एक समूचा पुराण,
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जो आज भी लिपटा हुआ है
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चिथड़ी धोती की तरह,
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तथाकथित श्यामवसना सरिता से 
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जो किसी बाल कन्हैया की
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चपल क्रीड़ाओं में
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बहा करती थी कभी--
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छल-छल, कल-कल
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ऐसा होता है
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सवेरा यहां
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जो सरपट दौड़ता जाता है
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हिंसक सड़कों पर,
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हिनहिनाकर
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टपटपाकर--
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अपनी दुम में बांधे
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घिसटती-लिसढ़ती पागल भीड़
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और मोटरगाड़ियों का अटूट रेला
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और जा-छिपता है
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दुर्घटनाओं के अस्तबल में,
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ताकि वह ग्रास न बन जाए
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किरणों में छिपे घातक इरादे का
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जो रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित है
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सूर्य के हाथों
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जिसे आतंकवादी बनाया है--
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निरीह बस्तियों को
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खुराक बनाने वाली
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आदमखोर महानगर की साजिशों ने,
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तदनंतर--
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उस आदमखोर को
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दबोचने झपट पड़ते हैं
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व्याघ्र किरणों के पंजे,
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जबकि हर महानागरिक
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धमाकों की उम्मीद लिए
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रेलवे प्लेटफार्मों पर
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बाज़ारों, चौराहों, पार्कों में
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सपनों की कच्ची फसल को
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जागती आँखों से चरता है,
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नंगी होने से उल्लासित
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अंगीठीनुमा औरतों से
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अपनी कठुआई यौन कुंठाएं सेंकता है--
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अपनी सेकेंडहैंड पैंट की फटी जेबों में
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रोटी, कपड़ा, मकान टटोलते हुए
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उस कुंठाजीवी के लिए
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सवेरा क्या है?
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बस, एक जोरदार सूखी छींक है,
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जो उसकी नासिका की ट्रैफिक खोल
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निष्कंटक बना देती है
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और तब, वह
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किसी दुर्घटना-स्थल पर
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जमा अभेद्य भीड़ से
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निकल जाने जैसा
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हलका-फुलका महसूस करता है
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क्योंकि वह जानता है कि
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सुबह के धमाके से गुज़रना
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रेडलाइट पर दौड़कर
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सड़क पार करने जैसा जोखिम भरा है,
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जबकि सवेरे की आवभगत करते
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पोस्टरों से
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रिसते रज से
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नाबालिग लड़कियां
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समय को ठेंगा दिखा
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सिर से पैर तक
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इतनी सेक्सी हो जाती हैं कि
 +
पुलिस उनके जननांगों से भी
 +
आर.डी.एक्स. बरामद कर लेती है
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इतना कुछ होता है तब
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वियाग्रा से देर तक उन्मत्त जब
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पेंशनभोगियों के लिए
 +
सवेरा अखबारों से फूटकर
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राजमार्गों तक पिलपिलाकर
 +
पसारना चाहता है कि
 +
'वीआईपियों' की इम्पोर्टिड कारें
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उनका रास्ता जाम कर देती हैं
 +
जबकि ट्रैफिक खुलने की उम्मीद में
 +
मरीज़ दम तोड़ देता है
 +
और किसी के नाम की सुपारी लिए भेड़िए
 +
अपने मेमने दबोच लेते हैं.

14:09, 3 अगस्त 2010 के समय का अवतरण


महानगर में सवेरा
 
अभी निशा-भ्रमित धुओं पर
दागे जा रहे होते हैं
तेजाबी ओस
कि चिमनियों-कार्ब्यूरेटरों से
कूच कर चली
धुओं की सशस्त्र सेनाएं,
गोरिल्ला रणनीति से
शामिल हो जाती हैं--
सृष्टि के विरुद्ध
एक परिणामी युद्ध में
 
तभी, आहत आसमान की
बांहों में सिसकते
ज्वारातंकित पूर्वी क्षितिज से
उग आता है--
टींसते फोड़े जैसा सूरज,
जिसकी किरणें
गाढ़े मवाद की तरह
फैलने लगती हैं--
सड़कों, राजभवनों
और झुराए मधुछत्तों जैसे
इमारतों तक
और बहने लगती हैं
रोगाणुओं-कीटाणुओं से दबी
और मृत्यु-भय से हदसी
जमुना की रुग्ण शिराओं में
और ज़हरीले मवाद से
मरणासन्न कर देती हैं
एक समूचा पुराण,
जो आज भी लिपटा हुआ है
चिथड़ी धोती की तरह,
तथाकथित श्यामवसना सरिता से
जो किसी बाल कन्हैया की
चपल क्रीड़ाओं में
बहा करती थी कभी--
छल-छल, कल-कल

ऐसा होता है
सवेरा यहां
जो सरपट दौड़ता जाता है
हिंसक सड़कों पर,
हिनहिनाकर
टपटपाकर--
अपनी दुम में बांधे
घिसटती-लिसढ़ती पागल भीड़
और मोटरगाड़ियों का अटूट रेला
और जा-छिपता है
दुर्घटनाओं के अस्तबल में,
ताकि वह ग्रास न बन जाए
किरणों में छिपे घातक इरादे का
जो रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित है
सूर्य के हाथों
जिसे आतंकवादी बनाया है--
निरीह बस्तियों को
खुराक बनाने वाली
आदमखोर महानगर की साजिशों ने,
तदनंतर--
उस आदमखोर को
दबोचने झपट पड़ते हैं
व्याघ्र किरणों के पंजे,
जबकि हर महानागरिक
धमाकों की उम्मीद लिए
रेलवे प्लेटफार्मों पर
बाज़ारों, चौराहों, पार्कों में
सपनों की कच्ची फसल को
जागती आँखों से चरता है,
नंगी होने से उल्लासित
अंगीठीनुमा औरतों से
अपनी कठुआई यौन कुंठाएं सेंकता है--
अपनी सेकेंडहैंड पैंट की फटी जेबों में
रोटी, कपड़ा, मकान टटोलते हुए

उस कुंठाजीवी के लिए
सवेरा क्या है?
बस, एक जोरदार सूखी छींक है,
जो उसकी नासिका की ट्रैफिक खोल
ताजे निकोटीनी धुओं की आवाजाही
निष्कंटक बना देती है
और तब, वह
किसी दुर्घटना-स्थल पर
जमा अभेद्य भीड़ से
निकल जाने जैसा
हलका-फुलका महसूस करता है
क्योंकि वह जानता है कि
सुबह के धमाके से गुज़रना
रेडलाइट पर दौड़कर
सड़क पार करने जैसा जोखिम भरा है,
जबकि सवेरे की आवभगत करते
पोस्टरों से
रिसते रज से
नाबालिग लड़कियां
समय को ठेंगा दिखा
सिर से पैर तक
इतनी सेक्सी हो जाती हैं कि
पुलिस उनके जननांगों से भी
आर.डी.एक्स. बरामद कर लेती है

इतना कुछ होता है तब
वियाग्रा से देर तक उन्मत्त जब
पेंशनभोगियों के लिए
सवेरा अखबारों से फूटकर
राजमार्गों तक पिलपिलाकर
पसारना चाहता है कि
'वीआईपियों' की इम्पोर्टिड कारें
उनका रास्ता जाम कर देती हैं
जबकि ट्रैफिक खुलने की उम्मीद में
मरीज़ दम तोड़ देता है
और किसी के नाम की सुपारी लिए भेड़िए
अपने मेमने दबोच लेते हैं.