लेखक: [[अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध]]}}{{KKCatKavita}}<poem>दिवस का अवसान समीप थागगन था कुछ लोहित हो चलातरू–शिखा पर थी अब राजतीकमलिनी–कुल–वल्लभ की प्रभा
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~विपिन बीच विहंगम–वृंद काकल–निनाद विवधिर्त था हुआध्वनिमयी–विविधा–विहगावलीउड़ रही नभ मण्डल मध्य थी अधिक और हुयी नभ लालिमादश दिशा अनुरंजित हो गयीसकल पादप–पुंज हरीतिमाअरूणिमा विनिमज्जित सी हुयी झलकने पुलिनो पर भी लगीगगन के तल की वह लालिमासरित और सर के जल में पड़ीअरूणता अति ही रमणीय थी।। अचल के शिखरों पर जा चढ़ीकिरण पादप शीश विहारिणीतरणि बिंब तिरोहित हो चलागगन मंडल मध्य शनै: शनै:।। ध्वनिमयी करके गिरि कंदराकलित कानन केलि निकुंज कोमुरलि एक बजी इस काल हीतरणिजा तट राजित कुंज में।। (यह अंश ‘प्रिय प्रवास’ से लिया गया है)</poem>