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"जिन्दगी/ ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर
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जब-जब भी सोचा | जब-जब भी सोचा | ||
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13:11, 31 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
ज़िन्दगी क्या है ?
जब-जब भी सोचा
हर बार
मुंह लगता सा उतर पाया।
मैंने पाया ;
मां की गोद में
रोते बच्चे के
आगे पड़ी
दूध की
खाली बोतल है -ज़िन्दगी।
रोजगार की तालश में
रेल के नीचे
कटी पड़ा
युवा लाश की
भूखी मां का प्रलाप है- ज़िन्दगी।
भ्रष्टाचार
मुनाफाखोरी
बे-ईमानी
नेता गिरी के लिए पुरस्कार
और अधिकारों की मांग के लिए
खांडे की धार है- ज़िन्दगी।
सब कुछ
देखती
सुनती
जमाने के दर्द
अपने में
संजोती
सहती
लेकिन फिर भी
भाव चेहरे पर रखती
आज का
ताज़ा अखबार है- ज़िन्दगी।