{{KKRachna
|रचनाकार=मुकेश मानस
|संग्रह=पतंग और चरखड़ी काग़ज़ एक पेड़ है / मुकेश मानस
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<poem>
'''बोध'''
ठहरता नहीं
कुछ भी, कभी कहीं
दिखता है जहाँ अंत
होती है शुरूआत वहीं
2008
'''जिन्दगीसुख-दुख'''क्षण भर के लिये आता है सुखऔर छोड़ जाता है दुखअंतहीन समय के लिये 2005
जिसने भी देखा'''रूपक'''मुंह फेरकर चल दियाजीवन को आदमी जीवन भरबेबस पड़ी थी जिन्दगी एक रूपक की तरह जीता है1990और मौत रूपक तोड़ देती हैएक क्षण में 2004
'''घरयाद'''किसी की याद आती रही रात भरऔर सुबह उठते ही देखाअपना चेहरा दर्पण में 2004
बरतन सूखे हैं'''नींद'''बच्चे भूखे हैंरात भर आती नहीं नींदचूल्हा ठंडा पड़ा रात गुज़र जाती हैबाप कहीं पीकर पड़ा है नींद की प्रतीक्षा में1988 2005
'''रातजीवन'''इस निविड़ गहन अंधकार मेंजुगनू सा जो चमकता हैजीवन हैअपने समूचे यथार्थ के साथ 2000
चूहे जगते सारी रात'''पहचान'''भगते फिरते सारी रातजब-जब ठोकर खाता हूँकटे खोज में सारी रातखुद को पहचानने लगता हूँबरतन बजते सारी रातथोड़ा और साफ़1992 2004
'''उदास दिन'''।। 1 ।।जो जिन्दगी से दूर हैवो शायरी मशहूर है ये किस मकाम पे खड़े कितने उदास दिन हैं सबशम्माएं बेअसर, चिराग बेनूर हैजिन्हें जी रहा हूँ इन दिनों ।। 2 ।।जंगल लगता है, सहरां हैं, मकां हैंजैसे वक्त को नए जमाने में आदमी की फसल नहीं होतीपी रहा हूँ इन दिनों 2005।। 3 ।।रोटी का सवाल हैआदमी मशाल है एटमों के दौर में जिन्दगी हलाल है ।। 4 ।।संभल कर चलते हैं लोगअसल में डरते हैं लोग जबसे डरने लगे हैं लोगरोज मरने लगे हैं लोग1995<poem>