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संगीतमय भीड़ / मनोज श्रीवास्तव

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''' संगीतमय भीड़ '''
संगीतमय भीड़ कभी भी, कहीं भी
आदमी का होना ही
संगीत का स्वत: स्रोत है,यानी , ज़िंदा आदमी
एक चलता-फिरता
वाद्य यंत्र होता है,
वह जहां भी हो
जैसा भी हो
गरमाहट तक आलापती है
और जब कुछ आदमी
भीड़ बना रहे हों ,
उसकी संगीतात्मकता
कई गुना बढ़ जाती है
भौंरे का गुनगुनाना
क्योंकि कलियों संग
उसकी रति-रतताके रतता के दौरान
झंकृत होते झांझ के
पंक-मग्न होने की तरह
उसके गुनगुन की क्षणभंगुरता
और उसकी
स्वांत:सुखाय कामुक उन्मत्तता
जबकि भीड़ की सरस धुन
होती है अछूती--
लिहाजा, जब आदम भीड़
मंदिर में आरती गा रही हो
मस्जिद में अजान अलाप आलाप रही हो
हाट में चाट या जलेबी खा रही हो
घाटों पर नहा-धोकर
सत्संग में ऊंघ रही हो
या स्टेशनों पर थक-छककर
जम्हाइयाँ-अंगड़ाइयां ले रही हो ,
ऐसे में वह छोड़ जाती है--
संगीत का अविरल रेला
खामोशी की,
घुप्प सनसनाहट
यांत्रिक-अयांत्रिक शोरों की,
और सरगम के पार का स्वर भी
फूटता है भीड़ के गले से ही
राम और कृष्ण के विरुद्ध
युद्ध-प्रलाप
या कृष्ण , अर्जुन से
गीता रहे हों आलाप
और राम, बेहोश लखन पर
कर रहे हों -- अथक विलाप
खोए बच्चे का आर्त्त क्रंदन
मोनोलिसा के
बहुभावामय बहुभावमय चहरे की तरह
भीड़ की गुनगुनाहट
भावनाओं के साथ नहीं करती है
कोई पक्षपात,
अर्थात जब हम मुस्कराना चाहें
वह गलाफोड़ हंसी हंसती है
और जब हम क्लेशित हों
वह बिलख-बिलख रोती है.