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|रचनाकार=कैफ़ी आज़मी
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<poem>
हाथ आ कर गया, गया कोई ।
मेरा छप्पर उठा गया कोई ।
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई ।
हाथ आकर मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरीइश्तिहार इक लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोईऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी  लग गया इक मशीन में मैं शहर में ले बेच के आ गया कोई  मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी इश्तिहार इक लगा अपना खा गया कोई
अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई ।
यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई ।
जैसे सूरज को खा गया कोई  ऐसी मंहगाई है के चेहरा भी बेच के अपना खा गया कोई  अब बोह अरमान हैं न वो सपने सब कबूतर उड़ा गया कोई  वोह गए जब से ऐसा लगता है छोटा -मोटा खुदा ख़ुदा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
 गांव गाँव से जब भी आ गया कोई</poem>
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